फिर आ गया एक नया साल,
पिछले तमाम सालों की तरह,
अपनी वही ‘पुरानी जिंदगी’ बिताने के लिए
हम सबका रचा, एक ‘नया साल’
नई खोजों, नए प्रयासों का साल,
नए तरीके से पैसा कमाने का साल,
झूठ बोलने का, पाप करने का साल,
नौकरी, शादी, तलाक का साल,
बच्चे पैदा करने का साल,
जीने का साल,
मरने का साल,
फिर से खुद को भूल जाने का साल,
नया साल,
फिर चलेगा, पुरानी घटनाओं पर,
समीक्षाओ और चर्चाओं का दौर,
फिर हम अपनी उपलब्धियां गिनाएंगे,
दोषों और कमियों को बिसरायेंगे ,
गुजरे साले ने हमें कैसे गुजारा,
एक दुसरे को सुनायेंगे,
नए साल पर नए वादे करेंगे,
कुछ दिनों के लिए फिर कसमें खायेंगे,
पिछली बातों को,
पुराने वादों और पुरानी कसमों को,
सच को,
एक बार फिर से भूल जायेंगे,
नए सिरे से फिर वही सब दुहराएंगे,
और अगले साल,
फिर ‘एक नया’ साल मनाएंगे.
Wednesday, December 29, 2010
Monday, December 20, 2010
पटकथा
उसके आंसू ढलक गये चुपचाप,
पसीने की धार में छुपकर.
वे शब्द उसके कान में पड़ रहे थे और जवाब आँखें दे रही थी,
कह तो यूं ही रही थी वह कुछ… पता नहीं क्या
उसे फिर लगा एक बार कि बस औरत है वह एक.
इंसान होना कुछ और होता है शायद
दो आदमियों और एक औरत, का सामना कर रही थी वो,
एक उसका, जिसके साथ उसने अपना अस्तित्व जोड़ दिया था,
एक उसका, जो पिता था पर अपने बेटों का,
और एक उसका, जो समय के साथ खो चुकी है अपना अस्तित्व
एक रिश्ते को छोड़ आई थी वह एक नए रिश्ते के लिए
यह पहली बार नहीं हुआ उसके साथ,
हज़ार बरसों से होता आ रहा है.
शुक्र है यह सब हो रहा था टीवी के रुपहले पर्दे पर
और ख़त्म हो गया कुछ घंटों में ही
सब उस धारावाहिक की कहानी में खो गए,
उसने ठंडी सांस ली.
हर किरदार ने बख़ूबी निभाई थी अपनी भूमिका,
उसे लगा कि उसी ने लिखी है यह पटकथा जिसने लिखी उसकी ज़िन्दगी की
अब वो पूजा नहीं करती.
धारावाहिक देखती है,
Monday, December 6, 2010
कंप्यूटर
इकीसवीं सदी.
बीस-पच्चीस साल का युवक.
आँखों में आंसू,
चेहरे पर तनाव, दिल में कुछ अनकहे जज़्बात.
उसकी उँगलियों का दबाव कंप्यूटर स्क्रीन पर ,
एक-से हरफों में एक एक कर उभर रहा है.
वो दिल की धडकन कंप्यूटर पर ‘टाइप’ करने की कोशिश कर रहा है,
और तार के ज़रिये दूसरे कंप्यूटर स्क्रीन तक पहुँचाना चाह रहा है.
उन काले, रेगुलर, टाईम्स न्यू रोमन, १० फाँट के शब्दों में संजीदगी डाल रहा है.
उम्मीद है उसे की उसके ख़याल, उसके जज़्बात, उसकी महक और उसकी सांस भी
शायद पहुँच रही दूर कहीं, दूसरी स्क्रीन पर, ‘एक अजनबी, अनदेखे’ चेहरे तक.
वो आस्तिक है.
उसे अनदेखे, अनजाने भगवान में यकीन है,
उसे उसका भगवान एक दिन मिलेगा?
शायद वो कंप्यूटर स्क्रीन से ही निकल आये,
आखिर भगवान तो हर जगह व्याप्त है.!
Sunday, November 14, 2010
वसु
(मेरा भांजा 'वसु')
वो भाग रहे वो कूद रहे
वो गिर रहे फिर उठ रहे,
नटखट, चंचल और शैतान,
हैं बिल्कुल एक खरगोश समान,
ये हैं हमारे वसु श्रीमान,
सुबह से शाम तक सबको हिला देते हैं,
चैन ले लेते हैं और नींद चुरा लेते हैं,
कर देते हैं नाक में दम,
जब अपनी पे आ जाएँ तो नहीं किसी जिन्न से कम,
इनकी करतूतों के हैं किस्से तमाम,
ये हैं हमारे वसु श्रीमान,
मम्मी-पापा को कर देते हैं भयभीत,
डांटने पर निकाल देते हैं संगीत,
जो मना करो बस वही करते हैं,
इनकी खुराफातों से सभी डरते हैं,
इनको दूध पिलाना है एक युद्ध समान,
ये हैं हमारे वसु श्रीमान,
पर हैं बड़े ही प्यारे,
‘कृष्ण समान’, सबके दुलारे,
पापा-मम्मी के आँखों के तारे,
नाना-नानी को लगते हैं न्यारे,
मामा-मामी भी हैं इनके फैन,
ऐसे हैं भई वसु हमारे.
Friday, November 12, 2010
गुन्नू
मेरी प्यारी भांजी गुनगुन उर्फ 'गुन्नू' ..उसके लिए इन पंक्तियों को लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाया..
हँसती गाती मौज मनाती,
खेल खेल में बढती जाती,
वक्त के साथ हाथ मिलाती,
नित नए है पाठ पढाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
कथक पे है पैर थिरकाती,
पिआनो पर भाई का साथ निभाती,
टेनिस के खेल में रंग जमाती,
कहानियाँ पढ़ती तो पढ़ती ही जाती,
रात को सुनती और सुनाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
पापा के है पैर दबाती,
मम्मी का है सर सहलाती,
नाना को घोडा बनवाती,
नानी को घर भर दौड़ाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
क्लास में सबको दोस्त बनाती,
पढ़ाई में हमेशा अव्वल आती,
होमवर्क को सदा कर जाती,
टीचर से वेरी गुड पाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
मामा-मामी से प्यार जताती,
जब भी आयें गले लगाती,
हाथ पकड़ के सैर कराती,
कंधे पर चढ़ चक्कर लगवाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
गुन्नू सबकी प्यारी है.
घर भर की दुलारी है,
आगे बढती जायेगी,
खूब नाम कमाएगी.
हँसती गाती मौज मनाती,
खेल खेल में बढती जाती,
वक्त के साथ हाथ मिलाती,
नित नए है पाठ पढाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
कथक पे है पैर थिरकाती,
पिआनो पर भाई का साथ निभाती,
टेनिस के खेल में रंग जमाती,
कहानियाँ पढ़ती तो पढ़ती ही जाती,
रात को सुनती और सुनाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
पापा के है पैर दबाती,
मम्मी का है सर सहलाती,
नाना को घोडा बनवाती,
नानी को घर भर दौड़ाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
क्लास में सबको दोस्त बनाती,
पढ़ाई में हमेशा अव्वल आती,
होमवर्क को सदा कर जाती,
टीचर से वेरी गुड पाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
मामा-मामी से प्यार जताती,
जब भी आयें गले लगाती,
हाथ पकड़ के सैर कराती,
कंधे पर चढ़ चक्कर लगवाती,
सबकी प्यारी गुन्नू.
गुन्नू सबकी प्यारी है.
घर भर की दुलारी है,
आगे बढती जायेगी,
खूब नाम कमाएगी.
Saturday, November 6, 2010
सिहरन
मैं गाड़ी में बैठा सिग्नल हरा होने का इंतज़ार कर रहा था,
तभी खिडकी के शीशे पर ठकठकाने के आवाज हुई,
और सिहरती हुई, हाथ जोड़े, दो पथराई आँखे दिखीं,
मैं शीशा नहीं खोल पाया,
पर पता नहीं कैसे हवा का एक ठंडा झोंका भीतर आ गया, जबरन.
बदन में एक पुरानी सी सिहरन, पैदा कर गया,
और मुझे कुछ बीस साल पहले घसीट ले गया,
जनवरी के महीने में,
जब मैं दो दो स्वेटर पहन कर, टोपी और मफलर लगा कर,
सयकिल से ट्यूशन पढ़ने जाता था,
और नाले पर रोज निक्कर पहने एक लड़का दीखता था,
लगभग मेरी ही उम्र का,
कांपते हुए, और, ठंडी राख तापते हुए,
मेरी तरफ देख के मुस्कुराता था,
पर मैं मुस्कुरा नहीं पाता था,
डर सा जाता था.
आज गाड़ी के अंदर, ऐ सी में बैठ कर,
मुझे, वैसा ही डर लग रहा है,
आज वो लड़का मुस्कुरा नहीं रहा है,
तभी खिडकी के शीशे पर ठकठकाने के आवाज हुई,
और सिहरती हुई, हाथ जोड़े, दो पथराई आँखे दिखीं,
मैं शीशा नहीं खोल पाया,
पर पता नहीं कैसे हवा का एक ठंडा झोंका भीतर आ गया, जबरन.
बदन में एक पुरानी सी सिहरन, पैदा कर गया,
और मुझे कुछ बीस साल पहले घसीट ले गया,
जनवरी के महीने में,
जब मैं दो दो स्वेटर पहन कर, टोपी और मफलर लगा कर,
सयकिल से ट्यूशन पढ़ने जाता था,
और नाले पर रोज निक्कर पहने एक लड़का दीखता था,
लगभग मेरी ही उम्र का,
कांपते हुए, और, ठंडी राख तापते हुए,
मेरी तरफ देख के मुस्कुराता था,
पर मैं मुस्कुरा नहीं पाता था,
डर सा जाता था.
आज गाड़ी के अंदर, ऐ सी में बैठ कर,
मुझे, वैसा ही डर लग रहा है,
आज वो लड़का मुस्कुरा नहीं रहा है,
Friday, October 29, 2010
ये एक नई सुबह है
हरे पत्तों पर ठंडी ओस की बूँद,
चिड़ियों की चहचाहट की गूँज,
और ठंडी ठंडी धीमी बयार,
हमसे कुछ कहते हैं यार,
ये एक नई सुबह है!
दादा जी का मॉर्निग वाक, अपनी पोती के साथ,
उस घर से आती छोटे बच्चे की आवाज़,
अँधेरे को चीरता ये उजास,
कराता है हमे ये एहसास,
ये एक नई सुबह है!
आँखों में कुछ सपनों की आस,
आलस्य को हराता नव-उल्लास,
हर पल बढ़ता ये प्रकाश,
मन को दिलाता यह विश्वास,
ये एक नई सुबह है!
Sunday, October 17, 2010
आज माँ ने दुर्गा का रूप लिया है
एक भीमकाय आकृति गिर रही है पृथ्वी पर,
रक्तरंजित शरीर, छिन्नभिन्न है अहंकार,
आहत है विकराल दानव,
राग-द्वेष-मोह, तीन सर उसके,
कट रहे हैं एक एक कर,
पराजित हो गया है वह ‘शक्ति’ से,
मर्दन हो गया है उसके अस्तित्व का,
बड़ी बड़ी आँखें, बिखरे बाल,
भुजाओं में अस्त्र, जिह्वा है लाल,
प्रचंड है आकार, प्रबल है प्रहार,
महिषासुरमर्दिनी हो तेरी जय,
तम पर हो सदा सत्य की विजय,
आज तुने ‘दुर्गा’ का रूप लिया है,
किया है रक्त पान,
इस दूषित रक्त को अब तू अमृत में बदल,
जिसकी एक बूँद आज सबको मिले,
और तेरा अंश हो सबमें व्याप्त,
हम सब करें पराजित तेरी शक्ति से,
अपने अपने अंदर छिपे दानवों को,
और करें जय अपने मन पर,
माँ तू अब सदा हममें वास कर..
Thursday, October 14, 2010
शुक्रिया मुझे जन्म देने का.!
मुझे पता हैं उठा लोगे तुम,
इसलिए मैं गिरने से नहीं डरती.
तुम्हारी हंसी से मेरे आंसू हंसी में बदल जाते हैं,
एक साहस सा पनप आता है तुम्हे देख के,
मेरी हार जीत में बदलेगी, ये तुम्हे मालूम है
...इसलिए मैं हारने से नहीं डरती,
गिरती हूँ, फिर सम्हालती हूँ, कोशिश करती हूँ,
तुम्हारी आँख की चमक मेरी आँखो की चमक में बदल जाती है,
हवा में जब तुम मुझे उछालते हो, पता है मैं तुम्हारे हाथों में गिरूंगी,
इसलिए अपने आप को तुम्हारे हवाले कर देती हूँ,
सुरक्षित रहती हूँ कुछ समय तक, तुम्हारे पास,
तब तक, जब तक मैं 'दूसरे के हवाले' नहीं हो जाती,
तब तुम्हारी आँखों के आंसू सदा के लिए मेरी आँखों में बस जाते हैं,
मैं कुछ भी कर सकती हूँ, कुछ भी बन सकती हूँ,
जन्म दे सकती हूँ एक उद्धारक को,
अगर खुद जन्म ले सकूं तो..!!
शुक्रिया मुझे जन्म देने का.!
Saturday, October 9, 2010
तिनके से ख़याल
घास के तिनके से उड़ते जा रहे हैं कुछ ख़याल,
कभी खेत में गिरते, कभी पेड पे हैं टिकते,
कभी गौरैया के घोंसले बनते, कभी लंबे बालों में जा उलझते,
कभी किताब के पन्ने पढते, कभी चूल्हे में जलते,
इतने हलके, इतने महीन, हर कहीं जा पहुँचते,
जब ये गीली मिट्टी पे गिरेंगे, जमेंगे और उगेंगे
सांस लेंगे, धूप में अपनी खुराक लेंगे,
फिर ये तिनका नहीं रहेंगे, बढ़ेंगे और पेड हो जायेंगे
फूलेंगे, फलेंगे और फिर एक तिनके को जन्म देंगे.
और एक नया पेड़ बन जाएंगे ,
खिलेंगे, खिलखिलाएंगे, लहलहायेंगे!
Thursday, September 30, 2010
तीन बेटे एक माँ के
झगड़ रहे थे तीन बेटे एक माँ के
सोने को माँ के पास, उसकी गोद में, एक ही जगह
काफी समझाने पर भी नहीं समझे,
फिर माँ ने फैसला सुनाया.
तीनो को अगल बगल सुलाया,
और एक-एक कर तीनो को सीने से लगाया.
आज सुप्रीम कोर्ट ने भी वैसा ही फैसला सुनाया है
आयें झगड़ा सदा के लिए खत्म करें
और एक दूसरे से प्रेम करें
सोने को माँ के पास, उसकी गोद में, एक ही जगह
काफी समझाने पर भी नहीं समझे,
फिर माँ ने फैसला सुनाया.
तीनो को अगल बगल सुलाया,
और एक-एक कर तीनो को सीने से लगाया.
आज सुप्रीम कोर्ट ने भी वैसा ही फैसला सुनाया है
आयें झगड़ा सदा के लिए खत्म करें
और एक दूसरे से प्रेम करें
Saturday, September 25, 2010
घड़ी का कांटा हमेशा चलता है.
दिन बीतता है, शाम होती है,
रात आती है, फिर सुबह होती है,
हम सबको हर समय बदलता है,
घड़ी का कांटा हमेशा चलता है
एक समाज पनपता है, राज करता है,
एक वर्ग दबता है, गिरता है, फिर सम्हलता है,
नव उत्थान आता है, क्रांति का विगुल बजता है,
घड़ी का कांटा हमेशा चलता है
एक विचार जनमता है, फिर बढ़ता है,
वह विचार फिर सबमे बसता है,
आँख देता है, कान देता है, एक नई जुबान देता है,अधिकार देता है, एक नया सम्मान देता है,
समाज को एक नयी पहचान देता है,
न रुकता है, न थकता है, न थमता है,
घड़ी का कांटा हमेशा चलता है
Tuesday, September 21, 2010
इंसानियत के सत्य को हैवानियत के प्रश्न पे विजय पानी होगी!!
कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिनका कोई उत्तर नहीं होता. एक कहावत बोली जाती है -अंडा पहले हुआ या मुर्गी. इस विषय पर तमाम चर्चाएँ हुई है, बहस हुई हैं पर इसका उत्तर कोई नहीं खोज पाया. ये कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं जिनका उत्तर खोजना व्यर्थ है क्यूंकी इससे सत्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता.जैसे “अंडा पहले हुआ या मुर्गी” इस प्रश्न से इस सत्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता की “मुर्गी कटती है और अंडे का आमलेट बनता है”.
आज भी हमे एक प्रश्न और सत्य में से सत्य का चुनाव करना है..प्रश्न है “बाबरी मस्जिद पहले हुई या मंदिर पहले बना” और सत्य है की इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने में हम लड़ते हैं, मरते हैं और मारते हैं. हमे इस सत्य को पहचानना होगा.इस सत्य को भी की मंदिर और मस्जिद में हम सर झुकाते हैं, पवित्र होते हैं,पापों के लिए क्षमा मांगते है..न की दूसरों से झगडा करते हैं और खून बहाते हैं.हमे इस सत्य को भी पहचानना होगा की ..धर्म मानवता के लिए बना है हैवानियत के लिए नहीं....इंसानियत के सत्य को हैवानियत के प्रश्न पे विजय पानी होगी
२४ सितम्बर २०१० को अयोध्या विवाद पर कोर्ट का फैसला आने वाला है..जिससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला सत्य पर. इतिहास को सुधारने की कोशिश से बेहतर है भविष्य को बेहतर बनाना
Thursday, September 16, 2010
जो निकल गया वो शेर है....
जो थम गया वो अश्क है,
जो बरस गया वो पानी है.
जो गरज गया वो बादल है,
जो छंट गया वो गफलत है.
जो दिख गयी वो मुस्कान है,
जो छिप गया वो जज़्बात है.
जो सोच लिया वो हरफ है,
जो मह्सूस किया वो धडकन है,
जो दब गयी वो बेचैनी है,
जो निकल गया वो शेर है.
Saturday, September 11, 2010
आज भी याद मुझे वो गाय है

काली बड़ी बड़ी आँखों से मुझे ताकती,
अपनी पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती,
मुंह पगुराती, कान हिलाती, अपने होने का एहसास दिलाती
आज भी याद मुझे वो गाय है
अपने बछड़े के सामान प्यार जताती,
थन का अपने दूध पिलातीं,
एक माँ का सा फर्ज निभाती,
आज भी याद मुझे वो गाय है.
पीछे जिसके छुप के हम आइस पाईस खेला करते,
अकेलेपन में जिसको प्यार करते,
जिसके गले के लटकाव, हम जी भर सहलाया करते,
जो आँख बंद कर, बिन बोले बहुत कुछ कहती
आज भी याद मुझे वो गाय है
जिसके गोबर से हम उपले जलाते, और उसमे लिट्टी पकाते,
होने से जिसके हम शांति पाते,
जिसके गले की घंटी की आवाज आज भी है सुनाई पड़ती
आज भी याद मुझे वो गाय है
एक खूंटे और एक रस्सी से बंधी वो दिन भर खड़ी रहती,
किसी बात का प्रतिरोध न करती,
सींग से जिसकी ज़रा न डर लगता,
देख जिसको हरी भावना उमड़ आती,
आज भी याद मुझे वो गाय है.
Tuesday, September 7, 2010
आज हवा में कुछ नमी सी है
आज हवा में कुछ नमी सी है,
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
मौसम के साथ, भीग गए है ख़याल भी,
कुछ यादों की महक सी आ रही है रुक रुक के,
सीने में खलिश एक अनकही सी है,
आज हवा में कुछ नमी सी है,
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
देखता हूँ जब दूर तक, परिंदों के साथ एक चेहरा उड़ता दिखता है,
नज़र उठ के जब गिरती है, आँखों में भर जाते हैं कुछ पुराने ख्वाब,
उठती क्यूँ एक बेचैनी सी है,
आज हवा में कुछ नमी सी है
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
वो मुंडेर पे बैठी कोयल, जब झाड़ती है अपने परों से पानी,
उसके छीटें कुछ पहचाने से लगते हैं, मुझसे कुछ कहते हैं,
क्यूँ आज लगती कुछ कमी सी है
आज हवा में कुछ नमी सी है,
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
ख्यालों का रंग हो गया है, पेड़ के नए हरे पत्तों की मानिंद
उनमे कुछ जान आ गयी है फिर से,
ये तल्खी कुछ नयी सी है,
आज हवा में कुछ नमी सी है,
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
नई मिटटी की सोंधी खुशबू कर जाती है सराबोर बार बार,
गुज़रे हुए लम्हे जैसे फिर ताज़ा हो गए है, नई रसद से
फिर जग रही एक उम्मीद सी है,
आज हवा में कुछ नमी सी है,
दिल की धडकन कुछ थमी सी है.
Friday, September 3, 2010
पुरानी किताब
उसने नहाने के बाद शीशे में खुद को देखा,
तो उसे अपनी एक पुरानी किताब के पीले पन्ने याद आ गए.
सिलवटें पड़ गयीं हैं जिसमे,
एक सीली सीली सी बास भी आ रही हैं.
फीकी पड़ी स्याही में लिखे वो शब्द बिना पढ़े कुछ कह रहे हैं.
बस पन्ने पलटने जाने को दिल करता है..
और पलटते जाते हैं वो बीते हुए लम्हे, जो कैद हैं इन मुड़े तुड़े कागजों में.
पर डर लगता है उसे,
कहीं इस फीके रंग, सलवटों और इस अजीब सी बास के बीच कीड़े न पड़ जायें!
तभी अचानक उसे अपनी बेचारगी, लाचारी और गुमनामी का एहसास हुआ
उसने जल्दी से अपने बदन को तौलिए से पोंछा,
इत्र लगाया, बाल बनाये और एक नयी शर्ट पहन ली.
अब वो खुद को नया नया सा पा रहा है,
जिल्द चढ़ी, पुरानी किताब की तरह!
Saturday, August 28, 2010
आज़ादी !

एक बार गाँव में एक चौपाल बैठा,
एक ‘ज्वलंत’ विषय पर बहस हो रही थी,
बहस करने वाले जन थे,
आर के लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’,
अपनी “२ गज ज़मीन” का मालिक एक ‘किसान’,
एक बहुमंजिली ईमारत की नीव की इंट रखता एक ‘मजदूर’,
और अगले चुनाव का इंतज़ार करता एक ‘मतदाता’.
बहस का विषय था – आखिर “आज़ादी” क्या है?
किस बला का नाम है ‘आज़ादी’
कॉमन मैन ने कहा-
शायद आज़ादी एक “फल” है!
जिसका स्वाद बड़ा मीठा होता है.
और जिसको खाने से मुक्ति मिलती है.
नहीं तो सभी इसे आज इतने चाव से न खा रहे होते!
किसान बोला -
आज़ादी एक “घोडा” है!
इसने हमने युद्ध में जीता है,
आज सब उसकी सवारी करना चाहते हैं,
उसे रेस में दौडाना चाहते हैं,
और पैसे कमाना चाहते हैं.
तभी मजदूर मिमियाया – नहीं !
आज़ादी तो एक “बकरी” है!
जो कटने को सदा तैयार रहती है,
जिसे काटने को हर कोई बेताब रहता है,
और जो पका कर खाने में बड़ी अच्छी लगती है.
मतदाता ने अपना मत दिया -
कहीं आज़ादी “गाय” तो नहीं?
जिसकी नियति निरंतर दुहना है, करोड़ो हाथों द्वारा,
और जिसका दूध उसका बछड़ा नहीं, बाकी सब पीते हैं.
चारो जन बहस कर कर के थक गए,
पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाए
आज़ादी का मतलब नहीं ढूंढ पाए.
और ये पहेली न सुलझा पाए..
तभी एक कबूतर उड़ता हुआ आया,
और आकर चौपाल की चौखट पे बैठ गया,
और हँसते हुए बोला -
इत्ती छोटी से बात पे इत्ती लंबी बहस?
अरे मूर्खों, आज़ादी एक पेड़ है,
जिसको सींचने से ही फल लगते हैं,
समानता के , न्याय के,
एक सम्मानजनक जीवन के अधिकार के,
भाईचारे और सहिष्णुता के,
वो पेड़ सभी को ठंडी छाँव देता है.
आजादी एक उद्देश्य नहीं बल्कि एक साधन है.
जिसे तुमलोग आज़ादी समझ बैठे हो
वो आज़ादी नहीं.
आज़ादी तो बरसों पहले मिली थी,
जिसका ख्वाब गांधी, बोस और भगत सिंह ने देखा था.
आज़ादी तो मिल गयी पर उसका फल नहीं मिला.
जो पेड़ उन्होंने बोया था उसे हमने सींचा ही नहीं
तो फल कहाँ से लगेंगे.
सींचा तो हमने गुलामी के पेड़ को है,
जो सूख चूका था, पर अब फिर हरा हो गया है,
वो फल दे रहा है,
जड़ें कहीं गहरी हैं उसकी.
आज हम आज़ाद तो हैं,
एक जंगली आदिवासी या पशु की तरह,
पर देश अभी भी गुलाम हैं, हमारी पाशविकता का,
जो प्रतिदिन नज़र आती हैं.
जहाँ एक कॉमन मैन हमेशा कॉमन ही बना रहता है
वो स्पेशल नहीं बन पता, या बनने नहीं दिया जाता.
किसान की ज़मीन इतनी छोटी हो जाती है
की वो मजदूर बन जाता है.
मजदूर एक मजदूर रहता है या रहने को मजबूर रहता है
और मतदाता हर पांच साल पर मत तो देता है
पर मत का फल नहीं पा पाता,
लोकतंत्र में बस तंत्र ही रहता है लोक कहीं खो जाता है.
और तुम सब आजाद होते हुए भी गुलाम रहते हो.
मुझे देखो - मैं आज़ाद हूँ पर तुम जैसा नहीं,
और कबूतर ने पंख फैलाये और उड़ चला.
चारों जन के बात अब समझ आ गयी,
की इस बहस का विषय ही गलत था,
और वे अपने अपने काम पर चल पड़े.
Sunday, August 22, 2010
कॉमनवेल्थ खेल
सुबह के वीराने में आती है एक आवाज,
कुछ लोग लगाते हैं गुहार,
की उनको पिछली रात नींद नहीं आई.
एक भयानक सपना जो सोने के कुछ ही देर बाद आया
और फिर वे रात भर सो नहीं पाए.
सपना ये था -
कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं!
खिलाडियों ने आने से मना कर दिया है,
तो अधिकारी, राजनेता और अर्गानिजिंग कमिटी के लोग
खुद ही खेल रहे हैं खेल.
जबरदस्ती टिकट बेचे जा रहे हैं,
न खरीदने वाले जेल जा रहे हैं
खिलाडी भाड़े पे आ रहे हैं
खेल कुछ भिन्न से हैं –
कुश्ती – एक तगड़े और एक कमजोर के बीच, मौत तक
शूटिंग – आँख पे पट्टी बांध के, निशाना आदमी पे
फुटबाल – गोल रहित मैदान में जानवरों और आदमियों के बीच
हाकी – महिलाओं और पुरुषों के बीच
तैराकी- स्विमिंग पूल में मिलायी गयी है खून की कुछ बूँदें
शतरंज – अधिकारी, राजनेता खेल रहे हैं, विदेशियों के साथ
शहर में कर्फ्यूं हैं – खेलों के खत्म होने तक..........
.......कॉमनवेल्थ खेल अब खत्म हो गए हैं.
सारे स्टेडियम तोड़ दिए गए हैं.
सारे सड़कें, पुल और फ्ल्योवर भी तहस नहस कर दिए गए हैं.
खेल गाँव भी ध्वस्त किया गया है,
अब सब कुछ फिर बनेगा, नए बजट से
अब भारत ओलम्पिक की मेजबानी करेगा!!
Sunday, August 15, 2010
स्वतंत्र है?
स्वतंत्र है?
दबा कर्ज के बोझ से,
महंगाई के प्रकोप से,
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के सहयोग से,
विकास के सुयोग से,
एक किसान अपनी झोपड़ी में?
स्वतंत्र है?
शिक्षा के अधिकार की आस में,
अपना पेट स्वयं भरने के प्रयास में,
कुपोषण, गरीबी, लाचारी और
अपने छह भाई बहनों के बीच एक बच्चा?
स्वतंत्र है?
एक डिग्री और एक डिप्लोमा लिए,
लगाता चक्कर सड़कों पर,
व्यथित, एक नौकरी की तलाश में,
छुपाये आँखों में दुःख, लाचारी और आक्रोश
करोड़ों अपने जैसों की भीड़ में एक नौजवान?
स्वतंत्र है?
घर की चारदीवारी में सीमित,
चौका बेलन और बच्चों के बीच,
अपने विवाह के दाम को प्रति पल चुकाती,
पति, सास, ससुर की आकांक्षाओं के तराजू पर तुलती,
अपनी महत्वाकांक्षा के सपने को भूलती,
अपनी पहचान तलाशती एक विवाहित महिला?
स्वतंत्र है?
दो भिन्न जातियों से जनित,
प्रेम करने की भूल कर बैठे,
अपने ही परिवार, गाँव जवार के दुश्मन,
बाप, भाई के निशाने पर,
मरने को तैयार एक नौजवान युवक-युवती?
स्वतंत्र है?
१२० करोड की भीड़ में,
६ धर्मों, १६१ भाषाओँ और ६४०० जातियों में,
भ्रष्टाचार, कट्टरवाद, धर्मवाद और आतंकवाद से जूझता,
सैकड़ों पार्टियों और चंद नेताओं के आश्वासनों को परखता,
कश्मीर, नक्सलवाद, जातिवाद के प्रश्नों बीच,
आशा की किरण को तलाशता,
एक भारतीय...
Wednesday, July 28, 2010
बस चलते जाना है
जीवन के इस सफर में
बस चलते जाना है.
हर राह - कंटक, निष्कंटक
से गुजरते जाना है.
कष्ट, दुःख, संताप
से उबरते जाना है.
माया मोह के इस जाल में
निरंतर फंसते जाना है.
अपने कर्तव्यों, दायित्यों पर
हर तरफ से
खरा उतरते जाना है.
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष
इन चार सत्यों का,
एक जविक कर्म की भांति,
एक बुद्धियुक्त, सोचयुक्त
रोबोट के सामान,
नियमबद्ध तरीके से
पालन करते जाना है.
लोभ,इर्ष्या,तृष्णा,स्वार्थ
अहंकार,राग,द्वेष,क्लेश
इन मॉर्डेन अलंकारों से
खुद को विभूषित करते जाना है.
जीवन की इस अंतहीन दौड में
एक मृग की भांति,
मृगमारीचिका के पीछे,
भ्रामक जल के पीछे,
बिना रुके, बिना थके,
बस दौड़ते जाना है.
एक रोटी, कपडा और मकान
के लिए,सारा जीवन
लड़ते जाना है.
हाँ मैं भी हूँ!
मेरा भी एक अस्तित्व है!
इस धरा पर
मेरा भी एक स्थान है.
इस विचार, इस तथ्य को
बिसरते जाना है.
इस जीवन के
अर्थ से परिचित होते हुए भी
अपने आप को भूलते हए
बस,
चलते जाना है , चलते जाना है.
बस चलते जाना है.
हर राह - कंटक, निष्कंटक
से गुजरते जाना है.
कष्ट, दुःख, संताप
से उबरते जाना है.
माया मोह के इस जाल में
निरंतर फंसते जाना है.
अपने कर्तव्यों, दायित्यों पर
हर तरफ से
खरा उतरते जाना है.
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष
इन चार सत्यों का,
एक जविक कर्म की भांति,
एक बुद्धियुक्त, सोचयुक्त
रोबोट के सामान,
नियमबद्ध तरीके से
पालन करते जाना है.
लोभ,इर्ष्या,तृष्णा,स्वार्थ
अहंकार,राग,द्वेष,क्लेश
इन मॉर्डेन अलंकारों से
खुद को विभूषित करते जाना है.
जीवन की इस अंतहीन दौड में
एक मृग की भांति,
मृगमारीचिका के पीछे,
भ्रामक जल के पीछे,
बिना रुके, बिना थके,
बस दौड़ते जाना है.
एक रोटी, कपडा और मकान
के लिए,सारा जीवन
लड़ते जाना है.
हाँ मैं भी हूँ!
मेरा भी एक अस्तित्व है!
इस धरा पर
मेरा भी एक स्थान है.
इस विचार, इस तथ्य को
बिसरते जाना है.
इस जीवन के
अर्थ से परिचित होते हुए भी
अपने आप को भूलते हए
बस,
चलते जाना है , चलते जाना है.
Sunday, July 18, 2010
यूँ ही....
यूँ ही मन में एक ख़याल आया
कि हमेशा एक सा क्यूँ नहीं रहता हूँ मैं?
कभी खुश तो कभी उदास क्यूँ हो जाता हूँ?
क्यूँ कभी शाम की ठंढी हवाएं भी मनहूस लगती हैं?
क्यूँ कभी चिलचिलाती धूप भी खुशगवार लगती है?
क्यूँ आज खुशी बांटने को जी करता है?
तो कल उदासी संभले नहीं संभलती.
ये दिन हमेशा एक से क्यूँ नहीं रहते!
क्या मैं हमेशा खुश नहीं रह सकता?
आखिर वो क्या चीज है,
जो आज खुशी तो कल उदासी पैदा कर देती है
मैं खोजता हूँ ऐसे मनुष्य को जो
हमेशा खुश रहता हो, पर
दुर्भाग्य,ऐसा अब तक कोई नहीं मिला मुझे
तो क्या हर व्यक्ति मेरे जैसा ही है!
क्या सभी को खुशी की तलाश है!
पर खुशी मिलती कैसे है?
पैसा, नौकरी, सोशल स्टेटस, शानो शौकत.....
तो क्या आज सारे पैसे वाले खुश हैं?
सभी कार वाले, बंगले वाले खुश हैं?
शायद नहीं.
इनके पास तो वो सब है, जिनसे मैं खुश हो सकता हूँ
तो वे क्यूँ नहीं!
इन्हें कैसे खुशी मिलती है?
इन्हें किस चीज की तलाश है!
हम सबसे कहीं बेहतर तो वो गरीब मजदूर है,
जो अपनी झोपड़ी में खुश रहता है.
Thursday, July 15, 2010
लाल सलाम
Saturday, July 10, 2010
प्रतियोगिता
एक नौजवान युवक,
आशा और उत्साह से पूर्ण,
कुछ करने के लिए, कर दिखाने के लिए,
पढता है, प्रतियोगिता में बैठता है.
एक सीमित स्थान के लिए;
खड़ी विशाल भीड़ में,
खुद की संभावना तलाशता है.
इस हौसले और उम्मीद के साथ, कि
उसने सुना था, “परिश्रम का फल मीठा होता है”
पर जब वह एक साल बाद
अखबार के दो पूरी तरह भरे पन्नों के बीच
अपना नाम नहीं पाता; कहीं नहीं
तब वह यह सोचता है या
सोचने पर मजबूर होता है कि,
शायद
कहीं उसी की गलती थी,
कहीं कमी रह गयी होगी उसी से.
और वह अगले साल के लिए
एक बढ़ी हुई भीड़ में
स्थान पाने के लिए,
फिर तैयारी में जुड जाता है ,
इस आशा और उम्मीद के साथ, कि
शायद! “परिश्रम का फल मीठा होता है”
आशा और उत्साह से पूर्ण,
कुछ करने के लिए, कर दिखाने के लिए,
पढता है, प्रतियोगिता में बैठता है.
एक सीमित स्थान के लिए;
खड़ी विशाल भीड़ में,
खुद की संभावना तलाशता है.
इस हौसले और उम्मीद के साथ, कि
उसने सुना था, “परिश्रम का फल मीठा होता है”
पर जब वह एक साल बाद
अखबार के दो पूरी तरह भरे पन्नों के बीच
अपना नाम नहीं पाता; कहीं नहीं
तब वह यह सोचता है या
सोचने पर मजबूर होता है कि,
शायद
कहीं उसी की गलती थी,
कहीं कमी रह गयी होगी उसी से.
और वह अगले साल के लिए
एक बढ़ी हुई भीड़ में
स्थान पाने के लिए,
फिर तैयारी में जुड जाता है ,
इस आशा और उम्मीद के साथ, कि
शायद! “परिश्रम का फल मीठा होता है”
Thursday, July 1, 2010
कर्म और मैं
धराशायी है आज अंधकार और निराशा
विजय पताका फहरा है ‘आत्मबल’
बढ़ चले हैं लक्ष्य की और ठोस कदम
अब नहीं थमेगा ये परिश्रम.
समर्पण, उत्साह और एकाग्रता आज मेरे मित्र हैं
जो अब सदा के लिए मेरे साथ हैं.
महसूस कर लिया है मैंने ;
पा ली है वो सुखद अनुभूति ;
चख लिया है वह अद्वितीय स्वाद;
जब से मैंने कर्म का वरण किया है.
‘जीवन की सफलता’ अब निश्चित है
“सत्य” अब दूर नहीं,
कर्म और मैं अब एक हो चले हैं ..
Friday, June 25, 2010
सफलता का प्रकाश
हर मनुष्य में दो तरह की प्रविर्तियाँ होती हैं. तामसिक प्रविर्ति - जो उसे अन्धकार की ओर ले जाती है और सात्विक प्रविर्ति - जो उसे प्रकाश की राह दिखाती है. ये प्रविर्तियाँ हर मनुष्य में होती है किसी में कम और किसी में ज्यादा. ये प्रविर्तियाँ समय समय पे अपना सर उठाती रहती हैं. जब अन्धकारजनित प्रविर्ति आती है तो सब कुछ अंधकारमय लगता है. पिछली दो पोस्ट इन्ही प्रविर्तियों की द्योतक है, जिसमे प्रकाश की तलाश है. प्रकाश का कण तो है ही बस उसे पहचानने की देर है. पहचान कर उसे प्रज्वल्लित करना है, इतना की अन्धकार का नामोनिशान न रहे..
पहचानो उस प्रकाश पुंज को
जो छिपा है, क्षितिज के उस पार.
देखो, उस दिवा को....
जो झांक रही है.
छुपी खड़ी है, रात के पीछे.
कुछ देर और लड़ो इस निराशा से.
थक जाने दो इसे,
फिर हराओ इसे पूरी शक्ति से.
आता है हर रात के बाद एक नया दिन
जब फैल जाता है, प्रकाश
क्षितिज के पार
हर तरफ होती है सिर्फ रोशनी
छंट जाता है सम्पूर्ण अंधकार.
असफलता के ढेर पर ही
बोया जाता है सफलता का बीज.
जिसे जीवित रखना है तुम्हे,
सिंचित करते रहना है.
फिर देखो,
कैसे उगती हैं, हरी कोंपलें
अपनी रगों, शिराओं, धमनियों में
एक जान लिए, विश्वास लिए
जल्दी ही ये मिलकर, रूप ले लेंगी
एक वृक्ष का: विराट, विशाल, समृद्ध
बीत जाने दो इस दौर को
कुछ सब्र करो,
असफलता, हताशा, निराशा, अंधकार
इनसे ही छन कर निकलेगा प्रकाश
आशा, उम्मीद और विश्वास की किरण के साथ,
जिसकी एक बूँद ही काफी होगी
आलोकित कर देने को तुम्हारा जीवन.
Thursday, June 17, 2010
जी रहा हूँ मैं?
जी रहा हूँ मैं,
जीने के लिए या मरने के लिए?
ये ‘मैं’ जी रहा हूँ या कोई ‘और’?
स्वयं को कितना पीछे छोड़ आया हूँ आज मैं?
इस हद तक कि,
आज मैं लगभग ‘मैं’ रह ही नहीं गया.
मेरे जीवन की सारी गतिविधियां
उस ‘शून्यता’ को दूर करने के लिए होती हैं
जो मेरे अस्तित्व का अंग बन चुकी है.
वर्त्तमान दुखद क्यूँ होता जा रहा है?
सुख ढूँढता हूँ पर
अब वो नहीं मिलता, कहीं नहीं!
भूत और भविष्य भी अब नीरस होते जा रहे हैं.
कर्म की डोर हाथ से बार बार छूट जाती है.
क्यूँ? मैं इतना कमज़ोर तो नहीं था कभी!
जीवन के मूल्य खो से गए हैं.
आज मैं जो हूँ वो क्यूँ हूँ ?
किस लिए हूँ , किसके लिए हूँ ?
क्यूँ जी रहा हूँ मैं?
Saturday, June 12, 2010
“तम”
कभी कभी हम अंधकार के दौर से गुजरते हैं, तम के दौर से गुजरते हैं. कुछ समझ नहीं आता, कुछ दिखाई नहीं पड़ता – आगे, पीछे, ऊपर, नीचे हर तरफ अंधकार ही अंधकार..हमारी आँखें प्रकाश की एक कण को तलाशती रहती हैं, रेगिस्तान के मृग की तरह...
काली अँधेरी रात है.
सर्वत्र तम ही तम व्याप्त है.
नीरवता की बस आवाज है.
नहीं दिखाई देता कोई प्रकाश है.
कितने ही चेहरे, कितनी ही आवाजें
हैं, इस तम की, पर
वे कभी मुखरित कभी मौन हो जाती हैं.
लुप्त हो जाती हैं ;
किसी का भी निशान बाकी नहीं रहता.
ये हाथ कुछ खोजने के लिए ,
बढ़ाते हैं आगे,
पाने का कुछ प्रयत्न करते हैं, मगर
एक मृग की भांति गति होती है उनकी.
इतनी स्पष्ट दिखने पर भी
निकट पहुँचने पर वह दूर हो जाती है.
वस्तु मिल कर भी नहीं मिलती.
क्यूँ, मन पूछता है, प्रश्न करता है.
क्यूँ, ये आंखमिचौली?
क्या है इसका अर्थ?
क्या है यह खेल?
क्या दिल की धडकन भी
शामिल है इस खेल मे ?
क्या वो भी छोड़ देगी साथ?
इस प्रशन पर दिल होता है विचलित,
अंतःकरण मे विचार आते हैं अगणित,
पर नहीं मिलता उत्तर.
आँखें इस अंधकार मे,
प्रयास करतीं हैं, कुछ देखने का
पर जो कुछ दीखता है उन्हें
वो प्रकाश नहीं है वह,
जिसकी उन्हें तलाश है.
वे खोजती रहती हैं, निरंतर
की, कहीं कोई प्रकाश का कण
मिल जाये, शायद!!!
Friday, June 11, 2010
हमारा नेता कैसा हो
अभी कुछ दिनों पहले मैंने प्रकाश झा की “राजनीति” देखी..आज की राजनीति की भयावह वास्तविकता को बड़ी बेबाकी और निडरता से प्रदर्शित किया है उन्होंने. फिल्म देखने के बाद एक सवाल बार बार कौंध रहा था मन मे “हमारा नेता कैसा होना चाहिए”.असल मे ये प्रश्न तो आजादी के ५० साल बाद भी एक प्रश्न ही है. कुछ समय पहले गुलज़ार साहब की एक फिल्म आई थी “हू तू तू”..इस फिल्म मे भी उन्होंने ने यही प्रश्न उठाया था..उस फिल्म को देखने के बाद मन मे कुछ उलझने पैदा हुईं..उन्ही को शब्दों का रूप दे दिया है.
बात करते हैं हम बदलाव की.
किसी ‘नए’, ‘करिश्माई नेता’ के चुनाव की.
जो इस पुराने, जंग खाते भारत में एक जान फूंके,
देश की जनता की सुषुप्त मानसिकता में प्राण फूंके.
वर्षों की लड़ाई व त्याग के बाद
किया हमने राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश.
हर पांच वर्ष में किया जाता है
सरकार द्वारा धन, और जनता द्वारा अपने वोट का
चुनावों में निवेश.
सिर्फ इसलिए कि देश को
एक सबल और नि:स्वार्थ नेतृत्व मिले.
बोस, पटेल और शास्त्री जैसा,
एक और व्यक्तित्व मिले.
देश की जनता का हो उस पर विश्वास.
केवल देशहित में हो जिसका प्रयास.
पर आज स्थिति भिन्न है.
स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद भी
उस स्थान पर केवल एक शून्य है.
पार्टियां बढ़ी हैं और नेता घटे हैं,
देश के विकास कार्यक्रम आज घोटालों से पटे हैं.
पंचवर्षीय योजनाएं हर बार करतीं हैं,
अपने लक्ष्य को छूने का एक असफल भागीरथ प्रयास.
बढ़ती मुद्रास्फीति, राजकोशीय घाटा, कर्ज व गरीबी
करते हैं विश्व के समक्ष, हमारे देश का उपहास.
और योजनाएँ करती हैं,
देश के बदले, हमारे तथाकथित नेताओं का विकास.
देश व देश की जनता का धन या तो स्विस बैंक में जाता है
या कभी-कभी शेयर, यूरिया और बोफोर्स जैसे
कुछ घोटालों में नज़र आ जाता है.
पर शायद ही वह हमारे देश के काम आ पाता है.
वोट की राजनीति, सत्तालोभ व स्वार्थ,
आज हर जगह है व्याप्त.
शायद नेताओं का युग ही हो गया है समाप्त.
आज के मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट
डाकू, बिजनेसमैन और हिस्ट्रीशीटर हैं.
अंगूठाछाप, चापलूस और गैंगस्टर
देश के फ्यूचर लीडर हैं.
दलबदल, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार
आज की राजनीति का धर्म है
आज के नेता का यही नैतिक कर्म है,
आज लंबी बहसें व चर्चाएँ होती हैं.
देश का सच्चा नेता कौन हो, इस पर
रैलियां, गोष्ठियां व सभायें होती हैं.
लीड इंडिया जैसे रिअलिटी शोज़ होते हैं
नेता बनने की युवकों मे होड़ होती है
पर जब नेता चुना जाता है
वो अपना असली रंग दिखता है!
संसद में सत्तारूढ़ पार्टी पर
अपोजिशन करता है प्रश्नों व आरोपों की बौछार.
लीडर ऑफ अपोजिशन, मंत्रियों पर
प्रश्नों, पेपरवेटों व माइकों का करता है वार.
उत्तर में शब्दों के साथ पेपरवेट व माइक ही आते हैं.
इस साहसिक युद्ध को, हम घर बैठे
टेलीविज़न पर देख घबराते हैं
और अपने पिछले निर्णय पर आठ-आठ आँसू बहाते हैं.
पुनः आते हैं चुनाव.
और हमें मिलता है नए नेता के चुनाव का अधिकार.
मतदान के लिए हम फिर करते हैं खुद को तैयार.
किसको चुने, किसको न चुने
इस चिर प्रश्न पर एक बार फिर करते हैं विचार.
एक बार फिर हम खुद को समझाते हैं.
और बूथकैप्चारिंग के डर को मन से भगाते हैं.
अंततः इस उहापोह में, हम जुआ खेल देते हैं.
और आँख बंद कर विभिन्न पार्टियों में से
किसी एक को अपना वोट दे देते हैं.
और हमारा नेता चुनने का अधिकार
हम फिर उन “पार्टियों” को ही दे देते हैं!
(गुलज़ार द्वारा निर्देशित फिल्म “हु तु तु ” से प्रेरित)
Thursday, June 10, 2010
‘चिर प्रश्न’
कुछ प्रश्न जिनका जवाब हम सदियों से ढूंढते आये हैं ........
कौन हूँ मैं? क्यूँ आया हूँ?
इस जग में किसने जाना है.
जीवन क्यूँ है? क्या है इसका अर्थ?
किसने इसे पहचाना है.
कौन लाता है, कौन उठाता है?
कौन हंसाता है, कौन रुलाता है?
कौन बिगाड़ता है और कौन बनाता है?
ये कैसा फ़साना है.
राग, द्वेष और मोह से मुक्त हो कर
जिसने स्वयं को पहचाना है,
इन चिर प्रश्नों का उत्तर
सिर्फ उसी ने जाना है!
Wednesday, June 9, 2010
कविता
एक 'कविता' के सृजन पर पर कुछ पंक्तियाँ....
जब सृजनात्मकता 'दिल' से फूट कर 'दिमाग' तक पहुँचती है,
जब उसे व्यक्त करने के लिए एक 'बेचैनी' सी पनपती है,
जब मन की कल्पना लेने लगती है शब्दों का आकार,
तब मेरे दोस्त, होता है एक "कविता" का साक्षात्कार!
Monday, June 7, 2010
‘क्लास’
क्लास मे पिछली बेंच पर बैठने का मजा ही कुछ और होता है. मन को एक अजीब सी शांति मिलती हैं. हम विभिन्न प्रकार के कार्यकलाप कर सकते हैं, खेल खेल सकते हैं, चित्र बना सकते हैं या कागज़ के गोले से सहपाठी को निशाना बना सकते हैं.वहां रचनाशीलता उमड़ उमड़ के आती है. वहां बैठ के एक अलग दृष्टि मिलती है. ये पिछली बेंच पर बैठ के ही लिखी गयी कविता है..है न क्लास का रचनात्मक उपयोग पढ़ने के अलावा!.....आप भी पढ़िए
संख्या है करीब ‘पचास-साठ’
बैठे हैं सभी पास-पास,
आठ-दस लंबी कतारों में,
सैकडों आँखें देख रही हैं.
सैकडों कान सुन रहे हैं.
सामने ‘खड़े एक व्यक्ति’ को,
जो प्रयास कर रहा है, सम्पूर्ण
उन्हें कुछ समझाने का, वह ‘उतना’
जितना उसने है,
आज के लिए बुना.
पर उसके मसाले में,
वो कडक, वो जोर नहीं;
क्यूंकि कुछ सुन रहे हैं , उसे
कुछ कर रहे हैं, अनसुना.
कुछ देर तक तो रहती है ख़ामोशी
पर जल्द ही एक बेचैनी सी,
छा जाती है, समुदाय में.
तभी बैठे व्यत्तियों में, एक
जो कुछ कहना चाहता है,
किसी को कुछ बताना चाहता है,
जब अपनी भावनाओं को छुपाने में
असफल रहता है;
एक “महत्वपूर्ण गोपनीय” बात का
खुलासा करता है दुसरे से.
दूसरा-तीसरे से व तीसरा-चौथे से.
धीरे-धीरे यह खुसर-फुसर
बदल जाती है एक अच्छीखासी चर्चा में.
“बर्दाश्त” करता है थोड़ी देर तक इसे
वह ‘खड़ा व्यक्ति’,
किसी प्रकार वह शांत कराता है उन्हें
और बाध्य करता है उन्हें सुनने को जिसमें
“कुछ पांच-छ:” को छोड़, बाकी का
कतई इंटरेस्ट नहीं है.
‘अचानक’ एक व्यक्ति, मुस्कुराता है,
जो, कोने में बैठे एक की नजर में आ जाता है.
वो मुस्कुराहट का जवाब हंसी में देता है.
उसके पीछे बैठा भी इस घटना पर हंस देता हैं.
इस हंस्योत्तर में, वह एक मुस्कुराहट
बदल जाती है – छोटे-छोटे ठहाकों में,
छुपाये जाते हैं, जो किसी तरह;
पर हंसी छुप सकती है भला
यह तो है एक अंतहीन कला
काफी देर, इस घटना को देखने के बाद
वह ‘खड़ा व्यक्ति’, एक को खड़ा करता है
तथा कारण पूछता है इस “हंसी” का
वह भी इसका जवाब हंसी में देता है.
इस पर पूरा समुदाय फिर हंस देता है.
पर रहस्य “रहस्य” बना रहता है.
और वह व्यक्ति चला जाता है.
अब “एक नया” आ जाता है.
फिर वह घटनाएँ दोहराई जाती हैं,
तथा कुछ नयी और उनमें जुड जाती हैं
यह क्रम चलता है और व्यक्ति बदलता रहता है
समुदाय उन्हें सुनता, देखता रहता है
और अपने कार्य करता रहता है.
“क्लास” चलता रहता है.
Saturday, June 5, 2010
नहीं आया पत्र
यह एक बीते हुए ज़माने की कविता है. पत्रों के ज़माने की. एक ज़माने मे पत्र हमारी जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे. मोबाइल और ई-मेल रहित वो दुनिया संजीदगी, अपनेपन और संवेदनाओं से परिपूर्ण हुआ करती थी जब हम कलम उठा कर अपनी हैण्ड रायटइंग मे अपने किसी अपने को एक “पत्र” लिखा करते थे, फिर उसको लैटर बॉक्स मे जा कर पोस्ट करते थे. हमे पत्रों का इंतज़ार हुआ करता था. डाकिया हमारी सामाजिक जिंदगी का एक अभिन्न अंग था. वे छात्र जो पढाई की वजह से घर से बाहर छात्रवास मे रहते थे, उन्हें उनके घर वालों और अपनों से ‘पत्र’ ही जोड़ा करते थे.
एक छात्र जो, कॉलेज से आते समय रोज लेटर बॉक्स देखता है, और अपना पत्र नहीं पाता वह क्या सोचता है, ये कविता उसे बयां करने का प्रयास करती है
आज
एक दिन और निकल गया.
और नहीं आया
मेरा पत्र.
कितनी आशा से,
उत्सुकता से,
मैं गेट पर जाता हूँ,
रोज.
डरते-डरते सशंकित
खोलता हूँ
लेटर बॉक्स को.
जबकि मालूम है मुझे
की नहीं होगा
मेरा पत्र वहाँ,
पर फिर भी,
मन के किसी कोने में
एक आशा सी रहती है.
की शायद आज मेरी किस्मत जागे
और मेरे नाम भी,
मेरे किसी अपने का,
पत्र आये.
पर सोचा हमेशा
पूरा होता है क्या?
और ये आशा, आज भी
बदल जाती है,
निराशा में.
और, मैं फिर
अपने-अपने पत्रों को पाकर
खुश होते मित्रों को देख
खुश हो लेता हूँ.
फिर समझा लेता हूँ
अपने मन को.
फिर दबा लेता हूँ
मन की उत्सुकता को.
संभवतः
दिलों की दूरी भी बढ़ती है
दूरी बढ़ने पर.
आज की व्यस्त जिंदगी में
कहाँ, किसके पास
समय है पत्र लिखने को!
सोचने को,
महसूस करने को!
की,
कितनी खुशी,
उत्साह व उमंग मिलती है
उसे,
जो उनसे दूर, अकेला है.
उसे भी लगता है,
हाँ, मेरे लिए भी
सोचता है कोई.
समय है, मेरे लिए भी
किसी के पास.
दिखा सकता है,
बता सकता है वो भी
अपने मित्रों को , की
मेरा भी पत्र आया है.
पर, अफ़सोस
ये सिर्फ वो सोचता है
वे नहीं, क्यूंकि
शायद,
अपने दायरे में
सोचने के लिए है
बहुत सी बातें उनके पास
वे नहीं निकलना
चाहते उसके पार
या चाह के भी नहीं
निकल पाते.
पर
इंतज़ार तो कर सकता हूँ, मैं
बेसब्री से.
इससे तो नहीं रोक सकता
मुझे कोई.
हो सकता है,
जब मेरा पत्र आये
तो सारी खुशी
हर उस दिन की
बकाया खुशी भी
बटोर लूं मैं
उस एक पत्र से.
हाँ ऐसा ही होगा!
आयेंगे ऐसे दिन!
जब
मेरे पत्र भी आयेंगे
संदेशा लायेंगे.
खुशियाँ मुझ पर भी
बरसेंगी बार-बार.
थक जाऊँगा मैं
जवाब देते देते.
मिल जायेगा मुझे
मेरा पूरा संसार.
रहेगा मुझे
इंतज़ार उस दिन का.
जब मैं कहूँगा
अपने मित्रों से
हाँ, आज
मेरा पत्र भी आया है!!
Saturday, May 29, 2010
नाक का औचित्य

हमारे जीवन में “नाक” क्या स्थान है ? अक्सर स्नानोपरांत जब मैं अपने चेहरे का दैनिक अवलोकन करता हूँ तो बरबस मेरी निगाहें चेहरे के बीचोबीच उस उठे हुए छिद्रयुक्त मांस व् हड्डियों से युक्त उस आकृति पर ठहर जाती है जिसे हम “नाक” कहते हैं. नाक के इस अजीब आकार पर मैंने कई बार विचार किया है पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असफल रहा हूँ.आखिर भगववान ने यह “त्रिभुजाकार आकृति” क्यूँ बनायीं? इसके स्थान पर सिर्फ दो छिद्रों से क्या काम नहीं चल सकता था ? भाई सांस ही तो लेनी है, जो ये दो छिद्र बखूबी कर सकते हैं.फिर इस अनावश्यक आकृति का क्या मतलब?
मतलब चाहे जो हो पर यह आकृति अब हमारे शरीर खास कर चेहरे का एक आवश्यक अंग है.यहाँ तक की सुंदरता के मूल्यांकन में नाक का एक अभिन्न स्थान है. महिलाएं खास कर नवयुवतियां अपने चेहरे में “तीखी” व् थोड़ी “उठी हुई” नाक के प्रति काफी सतर्क रहती हैं.आजकल तो प्लास्टिक सर्जरी द्वारा नाक को सुडौल बनवाना काफी प्रचिलित हो गया है.
व्यक्ति के व्यक्तित्व में नाक का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है.इंदिरा गांधी की ‘लंबी नाक’ को प्रसिद्द कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण अपने कार्टून्स में बड़ी सुंदरता से प्रदर्शित करते थे.आजकल भी चाहे वो बंगारू लक्ष्मण की ‘चिपटी नाक’ हो या सोनिया गांधी की लंबी नाक या नरसिम्हा राव की ‘समोसाकार नाक’, कार्टूनिस्ट उसे अपने कार्टून्स में समुचित स्थान देते हैं.किसी के आकर्षक होने में उसके चेहरे के तीखे नाक नक्श का होना काफी महत्त्व रखता है, जिसकी चर्चा लेखक तथा कविगण अपनी रचनाओं में करते नज़र आते हैं.हमारे हिंदू समाज मे नाक को सुन्दर बनाने तथा आभूषणों से सुसज्जित करने की एक बड़ी ही क्रूर प्रथा प्रचिलित है.बालिकाओं को बचपन मे नाक छिदवाने के कष्टप्रद रस्म से गुजरना होता है. इसी छिदी नाक मे वे टाप्स या विवाह के समय ‘नथुनी’ पहन कर अपनी सुंदरता प्रदर्शित करती हैं.अब तो नाक छिदवाने के प्रथा विदेशों तक मे प्रचिलित हो गयी है. नाक छिदवाने के प्रथा भले ही आज समाज का अंग बन चुकी है पर इस कष्टकारी तरीके से सुन्दर बनना कुछ गले नहीं उतरता मुझे.
सांस खींचने और निकलने के अलावा नाक मनुष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है यह हमारे सामाजिक कार्यों मे अक्सर नज़र आता है. दार्शनिकों,साहित्यकारों तथा लेखकों ने व्यक्ति की नाक की तुलना उसके ‘स्वाभिमान’ तथा ‘आत्मसम्मान’ से की है. इस छोटी सी नाक का कितना महत्त्व है वो इसी बात से पता चलता है की देश के नागरिक से अपेक्षा की जाती है की वह अपनी जान दे दे पर देश की ‘नाक नीची’ न होने दे.देश के राजनितीज्ञ, कूटनीतिज्ञ और राजनयिक सदा विश्व मे देश की ‘नाक ऊँची’ रखने का प्रयास करते हैं.सैनिक सरहद पर देश की नाक लिए जान दे देते हैं. एक बाप अपने कुपुत्र को लेकर सदा सशंकित रहता है की वह कहीं समाज मे उसकी ‘नाक न कटा दे’. रूढ़िवादी हिंदू समाज मे एक युवक अगर अपनी पसंद की विजातीय कन्या से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार की ‘नाक कट जाती है’.हमारे देश मे भ्रष्ट राजनेता अपनी नाक ऊँची रखने के प्रयास मे अक्सर देश की ‘नाक कटा’ देते है.
देश के इतिहास को भी हम नाक के प्रयोग द्वारा समझ सकते हैं. गाँधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह रूपी अपने अचूक अस्त्रों से अंग्रेजों को ‘नाकों चने चबवा दिए’.इतिहासकार इस तथ्य का वर्णन करने से नहीं चूकते की रानी लक्ष्मी बाई ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे तथा हैदर अली और शिवाजी ने कई बार अंग्रेजों की ‘नाक मे दम’ कर दिया था.और तो और सुविख्यात औरंगजेब का अधिकाँश जीवन शिवाजी की नाक मे नकेल डालने मे बीत गया था.समकालीन विश्व मे भी नाक उतनी ही महत्वपूर्ण है. अमरीका अपनी नाक ऊँची रखने के लिए इरान तथा उत्तर कोरिया को ‘नाक रगड़ने’ पर मजबूर करना चाहता है.भारत-पाक युद्ध मे दो बार ‘नाक रगड़ने’ को मजबूर होने के बाद भी पकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. आतंकवाद के खिलाफ युद्ध घोषित करने तथा तालिबान को नेस्तनाबूद करने के बावजूद अमेरिका अभी तक ओसामा बिन लादेन की ‘नाक मे नकेल’ डालने मे सफल नहीं हो पाया है.
हमारे दैनिक जीवन के कार्यकलापों मे भी नाक का अक्सर जिक्र आता है. जब शारीरिक रूप से सामान्य कोई व्यक्ति अपने से ज्यादा हिष्टपुष्ट व्यक्ति से नाराज होता है तो अक्सर वह बोलता है “मैं तुम्हारी नाक तोड़ दूंगा” (क्यूँकी उसे भलीभांति पता होता है की नाक के अलावा वह और कुछ तोड़ भी नहीं सकता). वे महिलाएं जो छोटी छोटी बात पे आपसे झगडा करने पे उतारू हो जाएँ या बिना बात के ‘नाक भौं सिकोडें’ उन्हें हिंदी भाषा मे ‘नकचढ़ी’ बोलते हैं. गुस्सा उनकी ‘नाक पर चढा’ होता है.इस ‘नकचढेपन’ मे अहंकार मिश्रित रोष होता है. नकचढेपन की इस कला मे हमारी बांगला राजनीतिज्ञ ममता बनर्जी माहिर हैं जिसका प्रदर्शन वे यदाकदा करती हैं. जब कोई अजनबी संभ्रांत व्यक्ति आपको सड़क पर रोक कर रास्ता पूछे, जो आपको मालूम नहीं है (पर आप बताना चाहते है) तो सर्वोत्तम तरीका है – ‘नाक की सीध मे, चले जाइये गंतव्य तक पहुँच जायेंगे. कई सजनों का ये शगल होता है की वो दूसरों को रास्ता बताएं(और भटकने पर मजबूर करें). कई महानुभावों को दूसरों के कार्यकलापों मे ‘अपनी गन्दी नाक घुसाने’ की बड़ी खराब आदत होती है. जब आप अपने किसी खास व्यक्ति से बातचीत करने मे मशगूल हों तो वे अचानक अपनी राय बीच मे पेश कर देते हैं और आपको यह कहने पे विवश कर देते हैं “महोदय कृपया अपनी नाक बीच मे न घुसाएँ”.
भारतीय खासकर हिंदी सिनेमा मे फिल्म निर्देशक नाक के महत्त्व का अपने संवादों मे बखूबी प्रयोग करते हैं. जब विवाह के मंडप मे लड़के वाले दहेज की नयी मांग प्रस्तुत कर देते हैं और विवाह रद्द करने की धमकी देते हैं तो लड़की का बाप अपनी पगड़ी लड़के के बाप के पैरों पर रख यह कहता नज़र आता है “समाधी जी अब मेरी नाक आपके हाथ मे है” या “समधी जी मेरी नाक रख लीजिए”. कोई व्यक्ति जो अत्यंत प्रसिद्द, सम्माननीय एवं प्रिय होता है तो उसे समाज तथा देश की ‘नाक’ जैसे अलंकार से विभूषित किया जाता है. सचिन तेंदुलकर या भगत सिंह को भारतवर्ष की नाक कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी.
आब नाक की चर्चा हो तो ‘नाक के बाल’ की भी चर्चा होनी चाहिए. कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ति हमारे ‘नाक का बाल’ हो जाता है.अक्सर परिवार के सबसे छोटे पुत्र या पुत्री अपने माँ बाप के ‘नाक का बाल’ होते हैं और सहजता से अधिकांश मांगों को पूरी करा लेते हैं. मनुष्यों से इतर जीव जंतु अपनी नाक का प्रयोग अक्सर अपने प्रेम का प्रदर्शन करने मे करते हैं.अकसर हमारे पालतू पशु – कुत्ते या बिल्ली हमे प्यार से ‘नाकियाते’ है. जो कार्य हम अपने हाथों से करते हैं वे अक्सर अपनी नाक से कर लेते हैं. कुत्ता या गाय अगर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं तो वे अपनी ‘ठंडी नाक’ आपसे छुआ देते हैं और अपनी नाक द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. कुत्तों की अत्यंत सवेदनशील नाक तो प्रसिद्ध ही है.
इस प्रकार हम देखते हैं की नाक का हमारे जीवन मे सामाजिक महत्त्व है. अगर हम थोड़ी ज्यादा गहराई मे जा कर सोचें तो पाएंगे की नाक का दार्शनिक एवं आध्यत्मिक महत्त्व भी है. यह नाक ही हमे यानि इस ‘भौतिक शरीर’ को ‘आत्मा’ से जोड़ने का साधन है. इन दो छिद्रों द्वारा ही जीवनदायी श्वास हमारे शरीर मे संचारित होती है.तो हम पाते हैं की अगर नाक न होती तो हम सांस न लेते और मनुष्य मात्र का अस्तित्व ही नहीं होता. इस तरह नाक हमे ब्रह्म से जोड़ती है. पतंजलि ने अपने योगसूत्र मे प्राणायाम द्वारा स्वयं सिद्धि का मार्ग बताया है जिसमे मनुष्य अपनी श्वास पर (नाक द्वारा) स्वयं को केंद्रित कर ध्यान और समाधि की अवस्था प्राप्त करता है. ध्यान और समाधि द्वारा ब्रह्म को पाया जा सकता है. इस प्रकार इश्वर का सम्पूर्ण मायावी संसार “नाक” पर ही केंद्रित है क्यूँकी इसी नाक द्वारा माया रुपी यह भौतिक शरीर श्वांस लेता है और आत्मा इसमें वास करती है. अगर कम शब्दों मे कहें तो यह नाक आत्मा और परमात्मा के बीच की कड़ी है. शायद ब्रह्मा ने मनुष्य के शरीर के संरचना करते समय सर्वप्रथम नाक का ही निर्माण किया था. अतः हम कह सकते हैं की अगर नाक नहीं होती तो शायद मनुष्य भी नहीं होता.
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