Sunday, December 11, 2011

समाधान की तलाश का सफर

ब्लॉग का नाम "उलझन" से बदल कर "समाधान" कर दिया है..उसका कारण

परसों मुझे एक संभ्रांत व्यक्ति ने सलाह दी,कि
अपनी उलझन को सुलझाईये
तथा समाधान कि  तरफ कदम बढाइये.
मुझे उनकी बात पसंद आई
मैंने अपने अंदर झाँका और खुद को टटोला
अंदर से कुछ ध्वनि सुनाई पड़ी,
बड़ी ही मधुर, बड़ी ही शीतल
एक ऐसी झील की तरह,
जिसके किनारे बैठ, उठने का मन नहीं होता
मन होता है बस, झील के बहते जल की शाश्वतता के दर्शन करता रहूँ
एक ऐसे बाग की तरह,
जिसके फूलों की सुगंध
दिल, सदा-सदा के लिए खुद में बसा लेना चाहता है.
एक ऐसे पहाड़ कि तरह
जिसका शिखर आसमान से भी ऊँचा है.
और जहाँ पहुँच कर लेश मात्र भी भय नहीं लगता
ऐसे नारी कि तरह,
जिसकी सुंदरता शब्दों में बयां नहीं हो सकती

"उलझन" का "समाधान" मिलता नज़र आ रहा है,

"समाधान" भी तलाशता है कोई ?
"समाधान" तो है ही, फिर "तलाश" कैसी?
कहीं "समाधान" के होने पर भरोसा, कम तो नहीं?
या कहीं "उलझन" तो नहीं इतनी  कि
समाधान सामने नहीं आ रहा?
कैसे सुलझेगी यह 'उलझन'
कैसे गिरहें खुलेंगी,
कसे आएगा 'समाधान'
कहाँ तलाश करूँ उसको?
मैं बाहर भटकता, भटकता थक गया हूँ,
कहीं वो भीतर ही तो नहीं?
झलक तो दिखती है 'उसकी' कभी कभी
"ध्रुव तारे" जैसे वो नज़र आ  जाता है
पर दृष्टि उस पर टिक ही नहीं पाती
ध्रुव होने के बावजूद वो नज़रों से ओझल हो जाता है

'ध्रुव तारा'  बनने कि चाह है मुझमे
सदा अटल, सदा शीतल, सदा स्थिर - ध्रुव 
अपरिवर्तनशील, शाश्वत, नित्य
जहाँ समाधन ही समाधान है,
किसी तरह कि उलझन का नामोनिशान नहीं है

पर "समाधान" की तलाश का "सफर" भी कम मजेदार नहीं!

११-१२-२०११, नॉएडा

Monday, November 28, 2011

कुछ लिखना चाह रहा हूँ

कुछ लिखना चाह रहा हूँ
पर न जाने क्यूँ, विचार आकार नहीं ले रहे.
कभी अन्ना याद आ जाते हैं, कभी केजरीवाल और किरणबेदी
कभी दिग्विजय, कभी अग्निवेश और रामदेव
कभी अडवाणी की रथ यात्रा, मोदी और नितीश
कभी राहुल और कभी मायावती, मानसपटल पर कौंधते हैं.
कुछ लिखना चाह रहा हूँ
पर न जाने क्यूँ, विचार आकार नहीं ले रहे...



Saturday, April 9, 2011

इन्साफ अभी बाकी है !


ये तो अभी शुरुआत है,

अंजाम अभी बाकी है.

उम्मीदों और सपनों का परवान अभी बाकी है,

देखना ये उबाल ठंडा कहीं न पड़ जाये.

क्रांति का असली इम्तिहान अभी बाकी है

मुश्किल है रास्ता, दूर तलक चलना है,

इस सफर का मकाम अभी बाकी है,

जश्न मनाने का नहीं है ये समय,

एक आम चेहरे पर मुस्कान अभी बाकी है

रुक न जाना, थक न जाना,

लड़ रहे तमाम साथयों का इन्साफ अभी बाकी है.

जोश के साथ रखो होश बरकरार,

इस व्यवस्था को बदलने का काम अभी बाकी है

Saturday, February 26, 2011

केंचुआ


मुड़ा हुआ तकिया, निकली हुई रुई,

गिरा हुआ गिलास, बिखरा हुआ पानी.

किताब, तौलिया, तेल की शीशी,

और कंघी के पास उलटी पड़ी चप्पल.

बगल में बैठा एक लड़का,

खिडकी से बाहर देख रहा,

कमर में रस्सी बांधे, ताड़ पर चढ़ते आदमी को,

गाड़ी से बाहर झांकते, झीभ लपलपाते कुत्ते को,

नाली में बहते नोट को,

और गीली मिटटी में रेंगते केंचुए को.

Wednesday, February 2, 2011

क्यूंकि वक्त बदलेगा


बहुमंजिली अट्टालिका के पास, एक बेड रूम फ्लैट में,

सुबह बेटे को सरकारी स्कूल में भेजते हुए,

जो कार वालों के स्कूल के सामने है.

पत्नी की ५ साल पुरानी साडी को देख कर,

नौकरी के लिए दौड कर बस पकड़ते हुए,

और महीने के बीच में अपनी जेब टटोलते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


मकान के लिए लोन लेते हुए,

महँगी सब्जी और सस्ता मोबाइल खरीदते हुए,

घिसे हुए जूते पहन कर, मॉल में घुमते हुए,

और टी वी पर कामेडी शो देखते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


ट्रेन के सेकेण्ड क्लास में सफर करते हुए,

टूटी सड़क और गड्ढों के बीच स्कूटर से चलते हुए,

बेटी के विवाह के लिए दहेज देते हुए,

और अपना बिजली का मीटर ठीक कराने के लिए लाइनमैन को रिश्वत देते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


अखबार में रोज घोटालों और भ्रष्टाचार की ख़बरें पढते हुए,

नेताओं को संसद में युद्ध करते देखते हुए,

एक बड़े बाप के बलात्कारी बेटे को पेरोल पर छूटते देखते हुए,

एक और आतंकवादी हमले के बाद भी,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा!


क्यूंकि अंग सांग सु की की रिहाई हो गयी है,

क्यूंकि ट्यूनीशिया की ‘जास्मिन क्रांति’ सफल हो गयी है,

क्यूंकि मिस्र के ‘तहरीर चौक’ पर जनसैलाब उमड पड़ा है,

क्यूंकि जार्डन में सरकार बर्खास्त हो गयी है,

क्यूंकि तासीर की हत्या का दर्द सिर्फ पकिस्तान तक सीमित नहीं है,

क्यूंकि भारत में भी कुछ सच्ची आवाजें बुलंद हैं,

क्यूंकि लोकतंत्र, साम्यवाद और समाजवाद अब बच्चे नहीं रहे,

जवान हो रहे हैं.

Tuesday, January 18, 2011

ख़बरें















चाय की चुस्की लेते हुए अखबार पर नज़र गयी,

एक गाड़ी पर एक फ्री, ब्रांडेड!, शीर्षक समाचार.

उसके बाद, क्रिकेट.

भारत की कल की जीत की खबर मोटे टाईप में बीच में थी,

आधे पेज की विजय गाथा के बाद नीचे कुछ छोटी ख़बरें थीं.

औद्योगिक विकास दर तेज ,प्याज साठ रुपये किलो.

भारत के एक बड़े औद्योगिक समूह ने एक विदेशी कंपनी को खरीदा,

प्रवासी भारतीय दिवस पर भारत ने प्रवासियों से निवेश की गुहार लगायी,

नक्सलियों ने दस की नृशंस ह्त्या की, एक नक्सल विचारधारा का नेता गिरफ्तार.

प्रधानमंत्री ने घोषित की एक नयी ग्रामीण एवं कृषि विकास योजना.

छोड़ दिया जीना, चार और किसानो ने थक कर .

एक और रूट आरम्भ दिल्ली मेट्रो का, दो राज्यों में भी मेट्रो शुरू करने के मांग.

सड़क के गड्ढे में एक स्कूल बस उलटी और एक फ्लाईओवर गिरा- शुक्र है सब बच गए.

निर्माण कार्य ज़ोरों पर, मजदूरों की जबरदस्त खपत

अब मजदूरों का आयात होगा कुछ देशों से, समझौते के तहत.

कुछ आम ख़बरें :

मलेरिया, एड्स और ब्लू लाइन से कुछ लोग मरे. पिछले हफ्ते

कुछ तीस एक लोग और मारे गए, कुछ हमारे यहाँ और कुछ उधर.

कुछ ख़बरें, हाशिए पर:

कुछ पुराने घोटालों पर ताज़ी अपडेट!

दो जवान और एक लड़की शहीद हुए, रिपोर्ट के अनुसार.

पहला पन्ना खत्म हो गया, अचानक

बाकी पन्ने इन्ही ख़बरों का विस्तार हैं.