Saturday, August 28, 2010
आज़ादी !
एक बार गाँव में एक चौपाल बैठा,
एक ‘ज्वलंत’ विषय पर बहस हो रही थी,
बहस करने वाले जन थे,
आर के लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’,
अपनी “२ गज ज़मीन” का मालिक एक ‘किसान’,
एक बहुमंजिली ईमारत की नीव की इंट रखता एक ‘मजदूर’,
और अगले चुनाव का इंतज़ार करता एक ‘मतदाता’.
बहस का विषय था – आखिर “आज़ादी” क्या है?
किस बला का नाम है ‘आज़ादी’
कॉमन मैन ने कहा-
शायद आज़ादी एक “फल” है!
जिसका स्वाद बड़ा मीठा होता है.
और जिसको खाने से मुक्ति मिलती है.
नहीं तो सभी इसे आज इतने चाव से न खा रहे होते!
किसान बोला -
आज़ादी एक “घोडा” है!
इसने हमने युद्ध में जीता है,
आज सब उसकी सवारी करना चाहते हैं,
उसे रेस में दौडाना चाहते हैं,
और पैसे कमाना चाहते हैं.
तभी मजदूर मिमियाया – नहीं !
आज़ादी तो एक “बकरी” है!
जो कटने को सदा तैयार रहती है,
जिसे काटने को हर कोई बेताब रहता है,
और जो पका कर खाने में बड़ी अच्छी लगती है.
मतदाता ने अपना मत दिया -
कहीं आज़ादी “गाय” तो नहीं?
जिसकी नियति निरंतर दुहना है, करोड़ो हाथों द्वारा,
और जिसका दूध उसका बछड़ा नहीं, बाकी सब पीते हैं.
चारो जन बहस कर कर के थक गए,
पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाए
आज़ादी का मतलब नहीं ढूंढ पाए.
और ये पहेली न सुलझा पाए..
तभी एक कबूतर उड़ता हुआ आया,
और आकर चौपाल की चौखट पे बैठ गया,
और हँसते हुए बोला -
इत्ती छोटी से बात पे इत्ती लंबी बहस?
अरे मूर्खों, आज़ादी एक पेड़ है,
जिसको सींचने से ही फल लगते हैं,
समानता के , न्याय के,
एक सम्मानजनक जीवन के अधिकार के,
भाईचारे और सहिष्णुता के,
वो पेड़ सभी को ठंडी छाँव देता है.
आजादी एक उद्देश्य नहीं बल्कि एक साधन है.
जिसे तुमलोग आज़ादी समझ बैठे हो
वो आज़ादी नहीं.
आज़ादी तो बरसों पहले मिली थी,
जिसका ख्वाब गांधी, बोस और भगत सिंह ने देखा था.
आज़ादी तो मिल गयी पर उसका फल नहीं मिला.
जो पेड़ उन्होंने बोया था उसे हमने सींचा ही नहीं
तो फल कहाँ से लगेंगे.
सींचा तो हमने गुलामी के पेड़ को है,
जो सूख चूका था, पर अब फिर हरा हो गया है,
वो फल दे रहा है,
जड़ें कहीं गहरी हैं उसकी.
आज हम आज़ाद तो हैं,
एक जंगली आदिवासी या पशु की तरह,
पर देश अभी भी गुलाम हैं, हमारी पाशविकता का,
जो प्रतिदिन नज़र आती हैं.
जहाँ एक कॉमन मैन हमेशा कॉमन ही बना रहता है
वो स्पेशल नहीं बन पता, या बनने नहीं दिया जाता.
किसान की ज़मीन इतनी छोटी हो जाती है
की वो मजदूर बन जाता है.
मजदूर एक मजदूर रहता है या रहने को मजबूर रहता है
और मतदाता हर पांच साल पर मत तो देता है
पर मत का फल नहीं पा पाता,
लोकतंत्र में बस तंत्र ही रहता है लोक कहीं खो जाता है.
और तुम सब आजाद होते हुए भी गुलाम रहते हो.
मुझे देखो - मैं आज़ाद हूँ पर तुम जैसा नहीं,
और कबूतर ने पंख फैलाये और उड़ चला.
चारों जन के बात अब समझ आ गयी,
की इस बहस का विषय ही गलत था,
और वे अपने अपने काम पर चल पड़े.
Sunday, August 22, 2010
कॉमनवेल्थ खेल
सुबह के वीराने में आती है एक आवाज,
कुछ लोग लगाते हैं गुहार,
की उनको पिछली रात नींद नहीं आई.
एक भयानक सपना जो सोने के कुछ ही देर बाद आया
और फिर वे रात भर सो नहीं पाए.
सपना ये था -
कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं!
खिलाडियों ने आने से मना कर दिया है,
तो अधिकारी, राजनेता और अर्गानिजिंग कमिटी के लोग
खुद ही खेल रहे हैं खेल.
जबरदस्ती टिकट बेचे जा रहे हैं,
न खरीदने वाले जेल जा रहे हैं
खिलाडी भाड़े पे आ रहे हैं
खेल कुछ भिन्न से हैं –
कुश्ती – एक तगड़े और एक कमजोर के बीच, मौत तक
शूटिंग – आँख पे पट्टी बांध के, निशाना आदमी पे
फुटबाल – गोल रहित मैदान में जानवरों और आदमियों के बीच
हाकी – महिलाओं और पुरुषों के बीच
तैराकी- स्विमिंग पूल में मिलायी गयी है खून की कुछ बूँदें
शतरंज – अधिकारी, राजनेता खेल रहे हैं, विदेशियों के साथ
शहर में कर्फ्यूं हैं – खेलों के खत्म होने तक..........
.......कॉमनवेल्थ खेल अब खत्म हो गए हैं.
सारे स्टेडियम तोड़ दिए गए हैं.
सारे सड़कें, पुल और फ्ल्योवर भी तहस नहस कर दिए गए हैं.
खेल गाँव भी ध्वस्त किया गया है,
अब सब कुछ फिर बनेगा, नए बजट से
अब भारत ओलम्पिक की मेजबानी करेगा!!
Sunday, August 15, 2010
स्वतंत्र है?
स्वतंत्र है?
दबा कर्ज के बोझ से,
महंगाई के प्रकोप से,
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के सहयोग से,
विकास के सुयोग से,
एक किसान अपनी झोपड़ी में?
स्वतंत्र है?
शिक्षा के अधिकार की आस में,
अपना पेट स्वयं भरने के प्रयास में,
कुपोषण, गरीबी, लाचारी और
अपने छह भाई बहनों के बीच एक बच्चा?
स्वतंत्र है?
एक डिग्री और एक डिप्लोमा लिए,
लगाता चक्कर सड़कों पर,
व्यथित, एक नौकरी की तलाश में,
छुपाये आँखों में दुःख, लाचारी और आक्रोश
करोड़ों अपने जैसों की भीड़ में एक नौजवान?
स्वतंत्र है?
घर की चारदीवारी में सीमित,
चौका बेलन और बच्चों के बीच,
अपने विवाह के दाम को प्रति पल चुकाती,
पति, सास, ससुर की आकांक्षाओं के तराजू पर तुलती,
अपनी महत्वाकांक्षा के सपने को भूलती,
अपनी पहचान तलाशती एक विवाहित महिला?
स्वतंत्र है?
दो भिन्न जातियों से जनित,
प्रेम करने की भूल कर बैठे,
अपने ही परिवार, गाँव जवार के दुश्मन,
बाप, भाई के निशाने पर,
मरने को तैयार एक नौजवान युवक-युवती?
स्वतंत्र है?
१२० करोड की भीड़ में,
६ धर्मों, १६१ भाषाओँ और ६४०० जातियों में,
भ्रष्टाचार, कट्टरवाद, धर्मवाद और आतंकवाद से जूझता,
सैकड़ों पार्टियों और चंद नेताओं के आश्वासनों को परखता,
कश्मीर, नक्सलवाद, जातिवाद के प्रश्नों बीच,
आशा की किरण को तलाशता,
एक भारतीय...
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