Friday, June 25, 2010

सफलता का प्रकाश



हर मनुष्य में दो तरह की प्रविर्तियाँ होती हैं. तामसिक प्रविर्ति - जो उसे अन्धकार की ओर ले जाती है और सात्विक प्रविर्ति - जो उसे प्रकाश की राह दिखाती है. ये प्रविर्तियाँ हर मनुष्य में होती है किसी में कम और किसी में ज्यादा. ये प्रविर्तियाँ समय समय पे अपना सर उठाती रहती हैं. जब अन्धकारजनित प्रविर्ति आती है तो सब कुछ अंधकारमय लगता है. पिछली दो पोस्ट इन्ही प्रविर्तियों की द्योतक है, जिसमे प्रकाश की तलाश है. प्रकाश का कण तो है ही बस उसे पहचानने की देर है. पहचान कर उसे प्रज्वल्लित करना है, इतना की अन्धकार का नामोनिशान न रहे..


पहचानो उस प्रकाश पुंज को

जो छिपा है, क्षितिज के उस पार.

देखो, उस दिवा को....

जो झांक रही है.

छुपी खड़ी है, रात के पीछे.

कुछ देर और लड़ो इस निराशा से.

थक जाने दो इसे,

फिर हराओ इसे पूरी शक्ति से.


आता है हर रात के बाद एक नया दिन

जब फैल जाता है, प्रकाश

क्षितिज के पार

हर तरफ होती है सिर्फ रोशनी

छंट जाता है सम्पूर्ण अंधकार.

असफलता के ढेर पर ही

बोया जाता है सफलता का बीज.

जिसे जीवित रखना है तुम्हे,

सिंचित करते रहना है.

फिर देखो,

कैसे उगती हैं, हरी कोंपलें

अपनी रगों, शिराओं, धमनियों में

एक जान लिए, विश्वास लिए

जल्दी ही ये मिलकर, रूप ले लेंगी

एक वृक्ष का: विराट, विशाल, समृद्ध


बीत जाने दो इस दौर को

कुछ सब्र करो,

असफलता, हताशा, निराशा, अंधकार

इनसे ही छन कर निकलेगा प्रकाश

आशा, उम्मीद और विश्वास की किरण के साथ,

जिसकी एक बूँद ही काफी होगी

आलोकित कर देने को तुम्हारा जीवन.

Thursday, June 17, 2010

जी रहा हूँ मैं?


जी रहा हूँ मैं,
जीने के लिए या मरने के लिए?
ये ‘मैं’ जी रहा हूँ या कोई ‘और’?
स्वयं को कितना पीछे छोड़ आया हूँ आज मैं?
इस हद तक कि,
आज मैं लगभग ‘मैं’ रह ही नहीं गया.

मेरे जीवन की सारी गतिविधियां
उस ‘शून्यता’ को दूर करने के लिए होती हैं
जो मेरे अस्तित्व का अंग बन चुकी है.
वर्त्तमान दुखद क्यूँ होता जा रहा है?
सुख ढूँढता हूँ पर
अब वो नहीं मिलता, कहीं नहीं!
भूत और भविष्य भी अब नीरस होते जा रहे हैं.
कर्म की डोर हाथ से बार बार छूट जाती है.
क्यूँ? मैं इतना कमज़ोर तो नहीं था कभी!
जीवन के मूल्य खो से गए हैं.
आज मैं जो हूँ वो क्यूँ हूँ ?
किस लिए हूँ , किसके लिए हूँ ?

क्यूँ जी रहा हूँ मैं?

Saturday, June 12, 2010

“तम”


कभी कभी हम अंधकार के दौर से गुजरते हैं, तम के दौर से गुजरते हैं. कुछ समझ नहीं आता, कुछ दिखाई नहीं पड़ता – आगे, पीछे, ऊपर, नीचे हर तरफ अंधकार ही अंधकार..हमारी आँखें प्रकाश की एक कण को तलाशती रहती हैं, रेगिस्तान के मृग की तरह...


काली अँधेरी रात है.
सर्वत्र तम ही तम व्याप्त है.
नीरवता की बस आवाज है.
नहीं दिखाई देता कोई प्रकाश है.
कितने ही चेहरे, कितनी ही आवाजें
हैं, इस तम की, पर
वे कभी मुखरित कभी मौन हो जाती हैं.
लुप्त हो जाती हैं ;
किसी का भी निशान बाकी नहीं रहता.
ये हाथ कुछ खोजने के लिए ,
बढ़ाते हैं आगे,
पाने का कुछ प्रयत्न करते हैं, मगर
एक मृग की भांति गति होती है उनकी.
इतनी स्पष्ट दिखने पर भी
निकट पहुँचने पर वह दूर हो जाती है.
वस्तु मिल कर भी नहीं मिलती.


क्यूँ, मन पूछता है, प्रश्न करता है.
क्यूँ, ये आंखमिचौली?
क्या है इसका अर्थ?
क्या है यह खेल?
क्या दिल की धडकन भी
शामिल है इस खेल मे ?
क्या वो भी छोड़ देगी साथ?
इस प्रशन पर दिल होता है विचलित,
अंतःकरण मे विचार आते हैं अगणित,
पर नहीं मिलता उत्तर.


आँखें इस अंधकार मे,
प्रयास करतीं हैं, कुछ देखने का
पर जो कुछ दीखता है उन्हें
वो प्रकाश नहीं है वह,
जिसकी उन्हें तलाश है.
वे खोजती रहती हैं, निरंतर
की, कहीं कोई प्रकाश का कण
मिल जाये, शायद!!!

Friday, June 11, 2010

हमारा नेता कैसा हो


अभी कुछ दिनों पहले मैंने प्रकाश झा की “राजनीति” देखी..आज की राजनीति की भयावह वास्तविकता को बड़ी बेबाकी और निडरता से प्रदर्शित किया है उन्होंने. फिल्म देखने के बाद एक सवाल बार बार कौंध रहा था मन मे “हमारा नेता कैसा होना चाहिए”.असल मे ये प्रश्न तो आजादी के ५० साल बाद भी एक प्रश्न ही है. कुछ समय पहले गुलज़ार साहब की एक फिल्म आई थी “हू तू तू”..इस फिल्म मे भी उन्होंने ने यही प्रश्न उठाया था..उस फिल्म को देखने के बाद मन मे कुछ उलझने पैदा हुईं..उन्ही को शब्दों का रूप दे दिया है.

बात करते हैं हम बदलाव की.
किसी ‘नए’, ‘करिश्माई नेता’ के चुनाव की.
जो इस पुराने, जंग खाते भारत में एक जान फूंके,
देश की जनता की सुषुप्त मानसिकता में प्राण फूंके.
वर्षों की लड़ाई व त्याग के बाद
किया हमने राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश.
हर पांच वर्ष में किया जाता है
सरकार द्वारा धन, और जनता द्वारा अपने वोट का
चुनावों में निवेश.
सिर्फ इसलिए कि देश को
एक सबल और नि:स्वार्थ नेतृत्व मिले.
बोस, पटेल और शास्त्री जैसा,
एक और व्यक्तित्व मिले.
देश की जनता का हो उस पर विश्वास.
केवल देशहित में हो जिसका प्रयास.

पर आज स्थिति भिन्न है.
स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद भी
उस स्थान पर केवल एक शून्य है.
पार्टियां बढ़ी हैं और नेता घटे हैं,
देश के विकास कार्यक्रम आज घोटालों से पटे हैं.
पंचवर्षीय योजनाएं हर बार करतीं हैं,
अपने लक्ष्य को छूने का एक असफल भागीरथ प्रयास.
बढ़ती मुद्रास्फीति, राजकोशीय घाटा, कर्ज व गरीबी
करते हैं विश्व के समक्ष, हमारे देश का उपहास.
और योजनाएँ करती हैं,
देश के बदले, हमारे तथाकथित नेताओं का विकास.
देश व देश की जनता का धन या तो स्विस बैंक में जाता है
या कभी-कभी शेयर, यूरिया और बोफोर्स जैसे
कुछ घोटालों में नज़र आ जाता है.
पर शायद ही वह हमारे देश के काम आ पाता है.

वोट की राजनीति, सत्तालोभ व स्वार्थ,
आज हर जगह है व्याप्त.
शायद नेताओं का युग ही हो गया है समाप्त.
आज के मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट
डाकू, बिजनेसमैन और हिस्ट्रीशीटर हैं.
अंगूठाछाप, चापलूस और गैंगस्टर
देश के फ्यूचर लीडर हैं.
दलबदल, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार
आज की राजनीति का धर्म है
आज के नेता का यही नैतिक कर्म है,

आज लंबी बहसें व चर्चाएँ होती हैं.
देश का सच्चा नेता कौन हो, इस पर
रैलियां, गोष्ठियां व सभायें होती हैं.
लीड इंडिया जैसे रिअलिटी शोज़ होते हैं
नेता बनने की युवकों मे होड़ होती है
पर जब नेता चुना जाता है
वो अपना असली रंग दिखता है!

संसद में सत्तारूढ़ पार्टी पर
अपोजिशन करता है प्रश्नों व आरोपों की बौछार.
लीडर ऑफ अपोजिशन, मंत्रियों पर
प्रश्नों, पेपरवेटों व माइकों का करता है वार.
उत्तर में शब्दों के साथ पेपरवेट व माइक ही आते हैं.
इस साहसिक युद्ध को, हम घर बैठे
टेलीविज़न पर देख घबराते हैं
और अपने पिछले निर्णय पर आठ-आठ आँसू बहाते हैं.

पुनः आते हैं चुनाव.
और हमें मिलता है नए नेता के चुनाव का अधिकार.
मतदान के लिए हम फिर करते हैं खुद को तैयार.
किसको चुने, किसको न चुने
इस चिर प्रश्न पर एक बार फिर करते हैं विचार.
एक बार फिर हम खुद को समझाते हैं.
और बूथकैप्चारिंग के डर को मन से भगाते हैं.
अंततः इस उहापोह में, हम जुआ खेल देते हैं.
और आँख बंद कर विभिन्न पार्टियों में से
किसी एक को अपना वोट दे देते हैं.
और हमारा नेता चुनने का अधिकार
हम फिर उन “पार्टियों” को ही दे देते हैं!

(गुलज़ार द्वारा निर्देशित फिल्म “हु तु तु ” से प्रेरित)

Thursday, June 10, 2010

‘चिर प्रश्न’

कुछ प्रश्न जिनका जवाब हम सदियों से ढूंढते आये हैं ........



कौन हूँ मैं? क्यूँ आया हूँ?
इस जग में किसने जाना है.
जीवन क्यूँ है? क्या है इसका अर्थ?
किसने इसे पहचाना है.
कौन लाता है, कौन उठाता है?
कौन हंसाता है, कौन रुलाता है?
कौन बिगाड़ता है और कौन बनाता है?
ये कैसा फ़साना है.
राग, द्वेष और मोह से मुक्त हो कर
जिसने स्वयं को पहचाना है,
इन चिर प्रश्नों का उत्तर
सिर्फ उसी ने जाना है!

Wednesday, June 9, 2010

कविता



एक 'कविता' के सृजन पर पर कुछ पंक्तियाँ....


जब सृजनात्मकता 'दिल' से फूट कर 'दिमाग' तक पहुँचती है,

जब उसे व्यक्त करने के लिए एक 'बेचैनी' सी पनपती है,

जब मन की कल्पना लेने लगती है शब्दों का आकार,

तब मेरे दोस्त, होता है एक "कविता" का साक्षात्कार!

Monday, June 7, 2010

‘क्लास’



क्लास मे पिछली बेंच पर बैठने का मजा ही कुछ और होता है. मन को एक अजीब सी शांति मिलती हैं. हम विभिन्न प्रकार के कार्यकलाप कर सकते हैं, खेल खेल सकते हैं, चित्र बना सकते हैं या कागज़ के गोले से सहपाठी को निशाना बना सकते हैं.वहां रचनाशीलता उमड़ उमड़ के आती है. वहां बैठ के एक अलग दृष्टि मिलती है. ये पिछली बेंच पर बैठ के ही लिखी गयी कविता है..है न क्लास का रचनात्मक उपयोग पढ़ने के अलावा!.....आप भी पढ़िए 




संख्या है करीब पचास-साठ
बैठे हैं सभी पास-पास,
आठ-दस लंबी कतारों में,
सैकडों आँखें देख रही हैं.
सैकडों कान सुन रहे हैं.
सामने खड़े एक व्यक्ति को,
जो प्रयास कर रहा है, सम्पूर्ण
उन्हें कुछ समझाने का, वह उतना
जितना उसने है,
आज के लिए बुना.
पर उसके मसाले में,
वो कडक, वो जोर नहीं;
क्यूंकि कुछ सुन रहे हैं , उसे
कुछ कर रहे हैं, अनसुना.
कुछ देर तक तो रहती है ख़ामोशी
पर जल्द ही एक बेचैनी सी,
छा जाती है, समुदाय में.
तभी बैठे व्यत्तियों में, एक
जो कुछ कहना चाहता है,
किसी को कुछ बताना चाहता है,
जब अपनी भावनाओं को छुपाने में
असफल रहता है;
एक महत्वपूर्ण गोपनीय बात का
खुलासा करता है दुसरे से.
दूसरा-तीसरे से व तीसरा-चौथे से.
धीरे-धीरे यह खुसर-फुसर
बदल जाती है एक अच्छीखासी चर्चा में.
बर्दाश्त करता है थोड़ी देर तक इसे
वह खड़ा व्यक्ति,
किसी प्रकार वह शांत कराता है उन्हें
और बाध्य करता है उन्हें सुनने को जिसमें
कुछ पांच-छ: को छोड़, बाकी का
कतई इंटरेस्ट नहीं है.
अचानक एक व्यक्ति, मुस्कुराता है,
जो, कोने में बैठे एक की नजर में आ जाता है.
वो मुस्कुराहट का जवाब हंसी में देता है.
उसके पीछे बैठा भी इस घटना पर हंस देता हैं.
इस हंस्योत्तर में, वह एक मुस्कुराहट
बदल जाती है छोटे-छोटे ठहाकों में,
छुपाये जाते हैं, जो किसी तरह;
पर हंसी छुप सकती है भला
यह तो है एक अंतहीन कला
काफी देर, इस घटना को देखने के बाद
वह खड़ा व्यक्ति, एक को खड़ा करता है
तथा कारण पूछता है इस हंसी का
वह भी इसका जवाब हंसी में देता है.
इस पर पूरा समुदाय फिर हंस देता है.
पर रहस्य रहस्य बना रहता है.
और वह व्यक्ति चला जाता है.
अब एक नया आ जाता है.
फिर वह घटनाएँ दोहराई जाती हैं,
तथा कुछ नयी और उनमें जुड जाती हैं
यह क्रम चलता है और व्यक्ति बदलता रहता है
समुदाय उन्हें सुनता, देखता रहता है
और अपने कार्य करता रहता है.

क्लास चलता रहता है.

Saturday, June 5, 2010

नहीं आया पत्र


 
यह एक बीते हुए ज़माने की कविता है. पत्रों के ज़माने की. एक ज़माने मे पत्र हमारी जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे. मोबाइल और ई-मेल रहित वो दुनिया संजीदगी, अपनेपन और संवेदनाओं से परिपूर्ण हुआ करती थी जब हम कलम उठा कर अपनी हैण्ड रायटइंग मे अपने किसी अपने को एक पत्र लिखा करते थे, फिर उसको लैटर बॉक्स मे जा कर पोस्ट करते थे. हमे पत्रों का इंतज़ार हुआ करता था. डाकिया हमारी सामाजिक जिंदगी का एक अभिन्न अंग था. वे छात्र जो पढाई की वजह से घर से बाहर छात्रवास मे रहते थे, उन्हें उनके घर वालों और अपनों से पत्र ही जोड़ा करते थे.

एक छात्र जो, कॉलेज से आते समय रोज लेटर बॉक्स देखता है, और अपना पत्र नहीं पाता वह क्या सोचता है, ये कविता उसे  बयां करने का प्रयास करती है

आज
एक दिन और निकल गया.
और नहीं आया
मेरा पत्र.
कितनी आशा से,
उत्सुकता से,
मैं गेट पर जाता हूँ,
रोज.
डरते-डरते सशंकित
खोलता हूँ
लेटर बॉक्स को.
जबकि मालूम है मुझे
की नहीं होगा
मेरा पत्र वहाँ,
पर फिर भी,
मन के किसी कोने में
एक आशा सी रहती है.
की शायद आज मेरी किस्मत जागे
और मेरे नाम भी,
मेरे किसी अपने का,
पत्र आये.
पर सोचा हमेशा
पूरा होता है क्या?
और ये आशा, आज भी
बदल जाती है,
निराशा में.
और, मैं फिर
अपने-अपने पत्रों को पाकर
खुश होते मित्रों को देख
खुश हो लेता हूँ.
फिर समझा लेता हूँ
अपने मन को.
फिर दबा लेता हूँ
मन की उत्सुकता को.

संभवतः
दिलों की दूरी भी बढ़ती है
दूरी बढ़ने पर.
आज की व्यस्त जिंदगी में
कहाँ, किसके पास
समय है पत्र लिखने को!
सोचने को,
महसूस करने को!
की,
कितनी खुशी,
उत्साह व उमंग मिलती है
उसे,
जो उनसे दूर, अकेला है.
उसे भी लगता है,
हाँ, मेरे लिए भी
सोचता है कोई.
समय है, मेरे लिए भी
किसी के पास.
दिखा सकता है,
बता सकता है वो भी
अपने मित्रों को , की
मेरा भी पत्र आया है.
पर, अफ़सोस
ये सिर्फ वो सोचता है
वे नहीं, क्यूंकि
शायद,
अपने दायरे में
सोचने के लिए है
बहुत सी बातें उनके पास
वे नहीं निकलना
चाहते उसके पार
या चाह के भी नहीं
निकल पाते.

पर
इंतज़ार तो कर सकता हूँ, मैं
बेसब्री से.
इससे तो नहीं रोक सकता
मुझे कोई.
हो सकता है,
जब मेरा पत्र आये
तो सारी खुशी
हर उस दिन की
बकाया खुशी भी
बटोर लूं मैं
उस एक पत्र से.

हाँ ऐसा ही होगा!
आयेंगे ऐसे दिन!
जब
मेरे पत्र भी आयेंगे
संदेशा लायेंगे.
खुशियाँ मुझ पर भी
बरसेंगी बार-बार.
थक जाऊँगा मैं
जवाब देते देते.
मिल जायेगा मुझे
मेरा पूरा संसार.
रहेगा मुझे
इंतज़ार उस दिन का.
जब मैं कहूँगा
अपने मित्रों से
हाँ, आज
मेरा पत्र भी आया है!!