Monday, December 20, 2010

पटकथा





















उसके आंसू ढलक गये चुपचाप,

पसीने की धार में छुपकर.

वे शब्द उसके कान में पड़ रहे थे और जवाब आँखें दे रही थी,

कह तो यूं ही रही थी वह कुछ… पता नहीं क्या

उसे फिर लगा एक बार कि बस औरत है वह एक.

इंसान होना कुछ और होता है शायद


दो आदमियों और एक औरत, का सामना कर रही थी वो,

एक उसका, जिसके साथ उसने अपना अस्तित्व जोड़ दिया था,

एक उसका,  जो पिता था पर अपने बेटों का,

और एक उसका, जो समय के साथ खो चुकी है अपना अस्तित्व

एक रिश्ते को छोड़ आई थी वह एक नए रिश्ते के लिए

यह पहली बार नहीं हुआ उसके साथ,

हज़ार बरसों से होता आ रहा है.


शुक्र है यह सब हो रहा था टीवी के रुपहले पर्दे पर

और ख़त्म हो गया कुछ घंटों में ही

सब उस धारावाहिक की कहानी में खो गए,

उसने ठंडी सांस ली.

हर किरदार ने बख़ूबी निभाई थी अपनी भूमिका,

उसे लगा कि उसी ने लिखी है यह पटकथा जिसने लिखी उसकी ज़िन्दगी की

अब वो पूजा नहीं करती.

धारावाहिक देखती है,

4 comments:

  1. बहुत खूब..औरत के मर्म को समझाने का एक सार्थक प्रयास किया है...अंतिम दो पंक्तियाँ पूरी कविता का सारांश है...

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  2. अच्छी कविता असीम…

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  3. धन्यवाद अलोक जी, परमजीत जी

    अशोक - शुक्रिया यार :)

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