मैं गाड़ी में बैठा सिग्नल हरा होने का इंतज़ार कर रहा था,
तभी खिडकी के शीशे पर ठकठकाने के आवाज हुई,
और सिहरती हुई, हाथ जोड़े, दो पथराई आँखे दिखीं,
मैं शीशा नहीं खोल पाया,
पर पता नहीं कैसे हवा का एक ठंडा झोंका भीतर आ गया, जबरन.
बदन में एक पुरानी सी सिहरन, पैदा कर गया,
और मुझे कुछ बीस साल पहले घसीट ले गया,
जनवरी के महीने में,
जब मैं दो दो स्वेटर पहन कर, टोपी और मफलर लगा कर,
सयकिल से ट्यूशन पढ़ने जाता था,
और नाले पर रोज निक्कर पहने एक लड़का दीखता था,
लगभग मेरी ही उम्र का,
कांपते हुए, और, ठंडी राख तापते हुए,
मेरी तरफ देख के मुस्कुराता था,
पर मैं मुस्कुरा नहीं पाता था,
डर सा जाता था.
आज गाड़ी के अंदर, ऐ सी में बैठ कर,
मुझे, वैसा ही डर लग रहा है,
आज वो लड़का मुस्कुरा नहीं रहा है,
ohh so touchy
ReplyDeleteदुनिया दुखों की खान है। बुद्ध ने इसे देखा और घर-बार छोड़कर चल पड़े। समाधान पाया इस बात में कि अज्ञान दुखों का कारक है और ज्ञान से ही मुक्ति है।
ReplyDeleteअब इस ज्ञान की प्राप्ति सबसे कठिन है।
कठिन है,पर संभव है..मुश्किल ये है की उस ज्ञान प्राप्त करने के रास्ते पर कोई नहीं चलता..सब शॉर्ट कट अपनाना चाहते है..फटाफट मुक्ति!
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना..बहुत कुछ सोचने पर विवस कर देती आपकी अंतिम दो पंक्तिया..साधुवाद...
ReplyDeleteबहुत भावमयी रचना असीम जी ....
ReplyDeletesaval yahi hai aseem ki ham use kab tak dekhte rahenge...is karunamay drishti ne hame kavi bhale bana diyaa uske dukh to nahi har saki...
ReplyDeleteउफ़!आईना दिखा दिया……………भीतर तक उतर गयी।
ReplyDeleteशुक्रिया अलोक जी, क्षितिजा, वंदना जी
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