Friday, September 3, 2010

पुरानी किताब
















उसने नहाने के बाद शीशे में खुद को देखा,

तो उसे अपनी एक पुरानी किताब के पीले पन्ने याद आ गए.

सिलवटें पड़ गयीं हैं जिसमे,

एक सीली सीली सी बास भी आ रही हैं.

फीकी पड़ी स्याही में लिखे वो शब्द बिना पढ़े कुछ कह रहे हैं.

बस पन्ने पलटने जाने को दिल करता है..

और पलटते जाते हैं वो बीते हुए लम्हे, जो कैद हैं इन मुड़े तुड़े कागजों में.

पर डर लगता है उसे,

कहीं इस फीके रंग, सलवटों और इस अजीब सी बास के बीच कीड़े न पड़ जायें!

तभी अचानक उसे अपनी बेचारगी, लाचारी और गुमनामी का एहसास हुआ

उसने जल्दी से अपने बदन को तौलिए से पोंछा,

इत्र लगाया, बाल बनाये और एक नयी शर्ट पहन ली.

अब वो खुद को नया नया सा पा रहा है,

जिल्द चढ़ी, पुरानी किताब की तरह!

1 comment:

  1. उच्चस्तरीय कविता.. आप तो गुलज़ार साहब कि तरह लिखने लग गये हैं..अच्छी पोस्ट..

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