Saturday, June 12, 2010

“तम”


कभी कभी हम अंधकार के दौर से गुजरते हैं, तम के दौर से गुजरते हैं. कुछ समझ नहीं आता, कुछ दिखाई नहीं पड़ता – आगे, पीछे, ऊपर, नीचे हर तरफ अंधकार ही अंधकार..हमारी आँखें प्रकाश की एक कण को तलाशती रहती हैं, रेगिस्तान के मृग की तरह...


काली अँधेरी रात है.
सर्वत्र तम ही तम व्याप्त है.
नीरवता की बस आवाज है.
नहीं दिखाई देता कोई प्रकाश है.
कितने ही चेहरे, कितनी ही आवाजें
हैं, इस तम की, पर
वे कभी मुखरित कभी मौन हो जाती हैं.
लुप्त हो जाती हैं ;
किसी का भी निशान बाकी नहीं रहता.
ये हाथ कुछ खोजने के लिए ,
बढ़ाते हैं आगे,
पाने का कुछ प्रयत्न करते हैं, मगर
एक मृग की भांति गति होती है उनकी.
इतनी स्पष्ट दिखने पर भी
निकट पहुँचने पर वह दूर हो जाती है.
वस्तु मिल कर भी नहीं मिलती.


क्यूँ, मन पूछता है, प्रश्न करता है.
क्यूँ, ये आंखमिचौली?
क्या है इसका अर्थ?
क्या है यह खेल?
क्या दिल की धडकन भी
शामिल है इस खेल मे ?
क्या वो भी छोड़ देगी साथ?
इस प्रशन पर दिल होता है विचलित,
अंतःकरण मे विचार आते हैं अगणित,
पर नहीं मिलता उत्तर.


आँखें इस अंधकार मे,
प्रयास करतीं हैं, कुछ देखने का
पर जो कुछ दीखता है उन्हें
वो प्रकाश नहीं है वह,
जिसकी उन्हें तलाश है.
वे खोजती रहती हैं, निरंतर
की, कहीं कोई प्रकाश का कण
मिल जाये, शायद!!!

7 comments:

  1. शानदार पोस्ट है...

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  2. अच्छी पोस्ट्…तमसो मा ज्योतिर्गमय

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  3. धन्यवाद...शेखर जी , अशोक और रूपचन्द्र जी

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  4. शानदार पोस्ट

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  5. सर्वश्रेष्ठ रचना... साधुवाद!

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