Wednesday, February 2, 2011

क्यूंकि वक्त बदलेगा


बहुमंजिली अट्टालिका के पास, एक बेड रूम फ्लैट में,

सुबह बेटे को सरकारी स्कूल में भेजते हुए,

जो कार वालों के स्कूल के सामने है.

पत्नी की ५ साल पुरानी साडी को देख कर,

नौकरी के लिए दौड कर बस पकड़ते हुए,

और महीने के बीच में अपनी जेब टटोलते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


मकान के लिए लोन लेते हुए,

महँगी सब्जी और सस्ता मोबाइल खरीदते हुए,

घिसे हुए जूते पहन कर, मॉल में घुमते हुए,

और टी वी पर कामेडी शो देखते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


ट्रेन के सेकेण्ड क्लास में सफर करते हुए,

टूटी सड़क और गड्ढों के बीच स्कूटर से चलते हुए,

बेटी के विवाह के लिए दहेज देते हुए,

और अपना बिजली का मीटर ठीक कराने के लिए लाइनमैन को रिश्वत देते हुए,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा.


अखबार में रोज घोटालों और भ्रष्टाचार की ख़बरें पढते हुए,

नेताओं को संसद में युद्ध करते देखते हुए,

एक बड़े बाप के बलात्कारी बेटे को पेरोल पर छूटते देखते हुए,

एक और आतंकवादी हमले के बाद भी,

जिंदा रखो अपने सपनो को,

क्यूंकि वक्त बदलेगा!


क्यूंकि अंग सांग सु की की रिहाई हो गयी है,

क्यूंकि ट्यूनीशिया की ‘जास्मिन क्रांति’ सफल हो गयी है,

क्यूंकि मिस्र के ‘तहरीर चौक’ पर जनसैलाब उमड पड़ा है,

क्यूंकि जार्डन में सरकार बर्खास्त हो गयी है,

क्यूंकि तासीर की हत्या का दर्द सिर्फ पकिस्तान तक सीमित नहीं है,

क्यूंकि भारत में भी कुछ सच्ची आवाजें बुलंद हैं,

क्यूंकि लोकतंत्र, साम्यवाद और समाजवाद अब बच्चे नहीं रहे,

जवान हो रहे हैं.

3 comments:

  1. अदभुत... सोचने को विवश कर देती है आपकी ये कृति..

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  2. बहुत खूब...

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