जी रहा हूँ मैं,
जीने के लिए या मरने के लिए?
ये ‘मैं’ जी रहा हूँ या कोई ‘और’?
स्वयं को कितना पीछे छोड़ आया हूँ आज मैं?
इस हद तक कि,
आज मैं लगभग ‘मैं’ रह ही नहीं गया.
मेरे जीवन की सारी गतिविधियां
उस ‘शून्यता’ को दूर करने के लिए होती हैं
जो मेरे अस्तित्व का अंग बन चुकी है.
वर्त्तमान दुखद क्यूँ होता जा रहा है?
सुख ढूँढता हूँ पर
अब वो नहीं मिलता, कहीं नहीं!
भूत और भविष्य भी अब नीरस होते जा रहे हैं.
कर्म की डोर हाथ से बार बार छूट जाती है.
क्यूँ? मैं इतना कमज़ोर तो नहीं था कभी!
जीवन के मूल्य खो से गए हैं.
आज मैं जो हूँ वो क्यूँ हूँ ?
किस लिए हूँ , किसके लिए हूँ ?
क्यूँ जी रहा हूँ मैं?
adbhut...
ReplyDeleteबहुत शानदार!
ReplyDeleteह्रदय मंथन अच्छा किया है असीमजी आपने
ReplyDeleteये इतनी निराशा क्यों .....??
ReplyDeleteदिलीप जी, समीर जी और आलोक जी - धन्यवाद
ReplyDeleteहीर जी - जीवन के एक पक्ष, मानव की एक प्रवृति को दर्शाने की कोशिश की है मैंने, जो किसी में कम होती है, किसी में ज्यादा.निराशा की स्वीकारोक्ति है इस कविता में..जो पहला कदम है उस से उबरने का...अगली कविता इसी स्वीकारोक्ति से उपजे हुए प्रकाश पर है ..कृपया उसे भी पढियेगा
ReplyDelete