यह एक बीते हुए ज़माने की कविता है. पत्रों के ज़माने की. एक ज़माने मे पत्र हमारी जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे. मोबाइल और ई-मेल रहित वो दुनिया संजीदगी, अपनेपन और संवेदनाओं से परिपूर्ण हुआ करती थी जब हम कलम उठा कर अपनी हैण्ड रायटइंग मे अपने किसी अपने को एक “पत्र” लिखा करते थे, फिर उसको लैटर बॉक्स मे जा कर पोस्ट करते थे. हमे पत्रों का इंतज़ार हुआ करता था. डाकिया हमारी सामाजिक जिंदगी का एक अभिन्न अंग था. वे छात्र जो पढाई की वजह से घर से बाहर छात्रवास मे रहते थे, उन्हें उनके घर वालों और अपनों से ‘पत्र’ ही जोड़ा करते थे.
एक छात्र जो, कॉलेज से आते समय रोज लेटर बॉक्स देखता है, और अपना पत्र नहीं पाता वह क्या सोचता है, ये कविता उसे बयां करने का प्रयास करती है
आज
एक दिन और निकल गया.
और नहीं आया
मेरा पत्र.
कितनी आशा से,
उत्सुकता से,
मैं गेट पर जाता हूँ,
रोज.
डरते-डरते सशंकित
खोलता हूँ
लेटर बॉक्स को.
जबकि मालूम है मुझे
की नहीं होगा
मेरा पत्र वहाँ,
पर फिर भी,
मन के किसी कोने में
एक आशा सी रहती है.
की शायद आज मेरी किस्मत जागे
और मेरे नाम भी,
मेरे किसी अपने का,
पत्र आये.
पर सोचा हमेशा
पूरा होता है क्या?
और ये आशा, आज भी
बदल जाती है,
निराशा में.
और, मैं फिर
अपने-अपने पत्रों को पाकर
खुश होते मित्रों को देख
खुश हो लेता हूँ.
फिर समझा लेता हूँ
अपने मन को.
फिर दबा लेता हूँ
मन की उत्सुकता को.
संभवतः
दिलों की दूरी भी बढ़ती है
दूरी बढ़ने पर.
आज की व्यस्त जिंदगी में
कहाँ, किसके पास
समय है पत्र लिखने को!
सोचने को,
महसूस करने को!
की,
कितनी खुशी,
उत्साह व उमंग मिलती है
उसे,
जो उनसे दूर, अकेला है.
उसे भी लगता है,
हाँ, मेरे लिए भी
सोचता है कोई.
समय है, मेरे लिए भी
किसी के पास.
दिखा सकता है,
बता सकता है वो भी
अपने मित्रों को , की
मेरा भी पत्र आया है.
पर, अफ़सोस
ये सिर्फ वो सोचता है
वे नहीं, क्यूंकि
शायद,
अपने दायरे में
सोचने के लिए है
बहुत सी बातें उनके पास
वे नहीं निकलना
चाहते उसके पार
या चाह के भी नहीं
निकल पाते.
पर
इंतज़ार तो कर सकता हूँ, मैं
बेसब्री से.
इससे तो नहीं रोक सकता
मुझे कोई.
हो सकता है,
जब मेरा पत्र आये
तो सारी खुशी
हर उस दिन की
बकाया खुशी भी
बटोर लूं मैं
उस एक पत्र से.
हाँ ऐसा ही होगा!
आयेंगे ऐसे दिन!
जब
मेरे पत्र भी आयेंगे
संदेशा लायेंगे.
खुशियाँ मुझ पर भी
बरसेंगी बार-बार.
थक जाऊँगा मैं
जवाब देते देते.
मिल जायेगा मुझे
मेरा पूरा संसार.
रहेगा मुझे
इंतज़ार उस दिन का.
जब मैं कहूँगा
अपने मित्रों से
हाँ, आज
मेरा पत्र भी आया है!!
बहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
ReplyDeleteधन्यवाद भास्कर जी
ReplyDeleteइंतज़ार उस दिन का.
ReplyDeleteजब मैं कहूँगा
अपने मित्रों से
हाँ, आज
मेरा पत्र भी आया है!!
अच्छी कविता है
शुक्रिया गौरव जी
ReplyDeleteउफ़्………………॥वेदना को सुन्दरता से परिभाषित किया है……………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
ReplyDeleteधन्यवाद बंदना जी.
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति....पत्र ना आने कि त्रासदी बखूबी लिखी है...
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी
ReplyDeleteमुझे भी कोई पत्र लिखे, ऐसी चाहत सभी रखते हैं लेकिन स्वयं से ही नहीं पूछ पाते कि हमने किसी को कितने पत्र लिखे? इंतजार की जगह बस पत्र लिखिए, लेटर बाक्स भरा हुआ मिलेगा। वैसे कविता अच्छी है।
ReplyDeleteमन की व्यथा और पत्र न आने की कौतूहलता का अच्छा मिश्रण किया है असीम जी...
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