कौन हूँ मैं? क्यूँ आया हूँ?
इस जग में किसने जाना है.
जीवन क्यूँ है? क्या है इसका अर्थ?
किसने इसे पहचाना है.
कौन लाता है, कौन उठाता है?
कौन हंसाता है, कौन रुलाता है?
कौन बिगाड़ता है और कौन बनाता है?
ये कैसा फ़साना है.
राग, द्वेष और मोह से मुक्त हो कर
जिसने स्वयं को पहचाना है,
इन चिर प्रश्नों का उत्तर
सिर्फ उसी ने जाना है!
राग द्वेष और मोह से कहाँ कौन हो पाया है....तभी तो स्वयं को स्वयं ही छलता जाता है इंसान....अच्छी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद.
ReplyDeleteइसी का प्रयास तो हमारे ऋषि मुनि करते आये हैं और हर धर्म मे इसी की शिक्षा है..हम स्वार्थी इंसान इस मूल बात को छोड, अन्य बातों पार ज्यादा समय व्यतीत करते हैं..खुशी पाने का प्रयास करते हैं और दुखी होते जाते हैं
भाई ऋषि मुनि ने तो जो कहा किया उस पर फिर कभी
ReplyDeleteअभी तो बस इतना कि तुक कविता के लिये ज़रूरी नहीं
sundar rachna
ReplyDeleteअपने मनोभाअवों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।सुन्दर रचना है।बधाई।
ReplyDeleteसभी का धन्यवाद..
ReplyDeleteअशोक तुम्हारी सलाह पर मैं ध्यान दूंगा
बहुत ही सुन्दर हृदयस्पर्शी कविता
ReplyDeleteह्रदय को छू गई आपकी कविता...
ReplyDelete