क्लास मे पिछली बेंच पर बैठने का मजा ही कुछ और होता है. मन को एक अजीब सी शांति मिलती हैं. हम विभिन्न प्रकार के कार्यकलाप कर सकते हैं, खेल खेल सकते हैं, चित्र बना सकते हैं या कागज़ के गोले से सहपाठी को निशाना बना सकते हैं.वहां रचनाशीलता उमड़ उमड़ के आती है. वहां बैठ के एक अलग दृष्टि मिलती है. ये पिछली बेंच पर बैठ के ही लिखी गयी कविता है..है न क्लास का रचनात्मक उपयोग पढ़ने के अलावा!.....आप भी पढ़िए
संख्या है करीब ‘पचास-साठ’
बैठे हैं सभी पास-पास,
आठ-दस लंबी कतारों में,
सैकडों आँखें देख रही हैं.
सैकडों कान सुन रहे हैं.
सामने ‘खड़े एक व्यक्ति’ को,
जो प्रयास कर रहा है, सम्पूर्ण
उन्हें कुछ समझाने का, वह ‘उतना’
जितना उसने है,
आज के लिए बुना.
पर उसके मसाले में,
वो कडक, वो जोर नहीं;
क्यूंकि कुछ सुन रहे हैं , उसे
कुछ कर रहे हैं, अनसुना.
कुछ देर तक तो रहती है ख़ामोशी
पर जल्द ही एक बेचैनी सी,
छा जाती है, समुदाय में.
तभी बैठे व्यत्तियों में, एक
जो कुछ कहना चाहता है,
किसी को कुछ बताना चाहता है,
जब अपनी भावनाओं को छुपाने में
असफल रहता है;
एक “महत्वपूर्ण गोपनीय” बात का
खुलासा करता है दुसरे से.
दूसरा-तीसरे से व तीसरा-चौथे से.
धीरे-धीरे यह खुसर-फुसर
बदल जाती है एक अच्छीखासी चर्चा में.
“बर्दाश्त” करता है थोड़ी देर तक इसे
वह ‘खड़ा व्यक्ति’,
किसी प्रकार वह शांत कराता है उन्हें
और बाध्य करता है उन्हें सुनने को जिसमें
“कुछ पांच-छ:” को छोड़, बाकी का
कतई इंटरेस्ट नहीं है.
‘अचानक’ एक व्यक्ति, मुस्कुराता है,
जो, कोने में बैठे एक की नजर में आ जाता है.
वो मुस्कुराहट का जवाब हंसी में देता है.
उसके पीछे बैठा भी इस घटना पर हंस देता हैं.
इस हंस्योत्तर में, वह एक मुस्कुराहट
बदल जाती है – छोटे-छोटे ठहाकों में,
छुपाये जाते हैं, जो किसी तरह;
पर हंसी छुप सकती है भला
यह तो है एक अंतहीन कला
काफी देर, इस घटना को देखने के बाद
वह ‘खड़ा व्यक्ति’, एक को खड़ा करता है
तथा कारण पूछता है इस “हंसी” का
वह भी इसका जवाब हंसी में देता है.
इस पर पूरा समुदाय फिर हंस देता है.
पर रहस्य “रहस्य” बना रहता है.
और वह व्यक्ति चला जाता है.
अब “एक नया” आ जाता है.
फिर वह घटनाएँ दोहराई जाती हैं,
तथा कुछ नयी और उनमें जुड जाती हैं
यह क्रम चलता है और व्यक्ति बदलता रहता है
समुदाय उन्हें सुनता, देखता रहता है
और अपने कार्य करता रहता है.
“क्लास” चलता रहता है.
:) :) आपकी ये रचना पढ़ कर मुझे भी अपने कॉलेज के दीं याद आ गए.....पीछे की बेंच पर बैठने का मज़ा ही कुछ और होता है...सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी..असल मे क्लास मे भी तीन क्लास होते हैं
ReplyDelete१)अगली पंक्ति जिसमे तथाकथित मेधावी छात्र बैठते हैं और खूब सवाल पूछते हैं और वे अध्यापक के प्रिय होते है
२)पिछली पंक्ति जिसमे हम आप जैसे लोग बैठते हैं जो पढाई के अलावा कुछ और करना चाहते हैं
३)बीच की पंक्ति जिसमे वे छात्र बैठते हैं जो अगली या पिछली पंक्ति मे जाना चाहते हैं..पर जा नहीं पाते
पिछली पंक्ति में बैठने वाले अक्सर कविता ही करते हैं या फिर चित्र बनाते हैं।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteपिछली पंक्ति में बैठने की बड़ी तमन्ना रही..मगर क्या बतायें. :)
ReplyDeleteक्लास में रचनाशीलता का अपना ही चरम होताहै.. हम भी उन्ही रचनाकारों में से हैं जिनकी ब्लॉग रचना की पहली कोशिश एक ऐसी ही क्लास से शुरू हुई थी... लेकिन पिछली ही नहीं अगली और माध्यम कुर्सियों पर भी ये रचना उतनी ही लागू होती है .. कुछ महान हस्तियाँ जिस वक्त वह "खड़ा आदमी" कुछ प्रेषित करने की कोशिश में होता है एक बार कम से कम निद्रा सुख भी ले ही ले लेते हैं... और ये वाकई चरम है उस कल्पनाशीलता का जो की उस "खड़े आदमी" की भरसक कोशिश अनंतर ही पाया जा सकता है.. बहुत ही खूब लिखा है आपने
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