Saturday, May 29, 2010

नाक का औचित्य


हमारे जीवन में “नाक” क्या स्थान है ? अक्सर स्नानोपरांत जब मैं अपने चेहरे का दैनिक अवलोकन करता हूँ तो बरबस मेरी निगाहें चेहरे के बीचोबीच उस उठे हुए छिद्रयुक्त मांस व् हड्डियों से युक्त उस आकृति पर ठहर जाती है जिसे हम “नाक” कहते हैं. नाक के इस अजीब आकार पर मैंने कई बार विचार किया है पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असफल रहा हूँ.आखिर भगववान ने यह “त्रिभुजाकार आकृति” क्यूँ बनायीं? इसके स्थान पर सिर्फ दो छिद्रों से क्या काम नहीं चल सकता था ? भाई सांस ही तो लेनी है, जो ये दो छिद्र बखूबी कर सकते हैं.फिर इस अनावश्यक आकृति का क्या मतलब?

मतलब चाहे जो हो पर यह आकृति अब हमारे शरीर खास कर चेहरे का एक आवश्यक अंग है.यहाँ तक की सुंदरता के मूल्यांकन में नाक का एक अभिन्न स्थान है. महिलाएं खास कर नवयुवतियां अपने चेहरे में “तीखी” व् थोड़ी “उठी हुई” नाक के प्रति काफी सतर्क रहती हैं.आजकल तो प्लास्टिक सर्जरी द्वारा नाक को सुडौल बनवाना काफी प्रचिलित हो गया है.

व्यक्ति के व्यक्तित्व में नाक का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है.इंदिरा गांधी की ‘लंबी नाक’ को प्रसिद्द कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण अपने कार्टून्स में बड़ी सुंदरता से प्रदर्शित करते थे.आजकल भी चाहे वो बंगारू लक्ष्मण की ‘चिपटी नाक’ हो या सोनिया गांधी की लंबी नाक या नरसिम्हा राव की ‘समोसाकार नाक’, कार्टूनिस्ट उसे अपने कार्टून्स में समुचित स्थान देते हैं.किसी के आकर्षक होने में उसके चेहरे के तीखे नाक नक्श का होना काफी महत्त्व रखता है, जिसकी चर्चा लेखक तथा कविगण अपनी रचनाओं में करते नज़र आते हैं.हमारे हिंदू समाज मे नाक को सुन्दर बनाने तथा आभूषणों से सुसज्जित करने की एक बड़ी ही क्रूर प्रथा प्रचिलित है.बालिकाओं को बचपन मे नाक छिदवाने के कष्टप्रद रस्म से गुजरना होता है. इसी छिदी नाक मे वे टाप्स या विवाह के समय ‘नथुनी’ पहन कर अपनी सुंदरता प्रदर्शित करती हैं.अब तो नाक छिदवाने के प्रथा विदेशों तक मे प्रचिलित हो गयी है. नाक छिदवाने के प्रथा भले ही आज समाज का अंग बन चुकी है पर इस कष्टकारी तरीके से सुन्दर बनना कुछ गले नहीं उतरता मुझे.

सांस खींचने और निकलने के अलावा नाक मनुष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है यह हमारे सामाजिक कार्यों मे अक्सर नज़र आता है. दार्शनिकों,साहित्यकारों तथा लेखकों ने व्यक्ति की नाक की तुलना उसके ‘स्वाभिमान’ तथा ‘आत्मसम्मान’ से की है. इस छोटी सी नाक का कितना महत्त्व है वो इसी बात से पता चलता है की देश के नागरिक से अपेक्षा की जाती है की वह अपनी जान दे दे पर देश की ‘नाक नीची’ न होने दे.देश के राजनितीज्ञ, कूटनीतिज्ञ और राजनयिक सदा विश्व मे देश की ‘नाक ऊँची’ रखने का प्रयास करते हैं.सैनिक सरहद पर देश की नाक लिए जान दे देते हैं. एक बाप अपने कुपुत्र को लेकर सदा सशंकित रहता है की वह कहीं समाज मे उसकी ‘नाक न कटा दे’. रूढ़िवादी हिंदू समाज मे एक युवक अगर अपनी पसंद की विजातीय कन्या से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार की ‘नाक कट जाती है’.हमारे देश मे भ्रष्ट राजनेता अपनी नाक ऊँची रखने के प्रयास मे अक्सर देश की ‘नाक कटा’ देते है.

देश के इतिहास को भी हम नाक के प्रयोग द्वारा समझ सकते हैं. गाँधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह रूपी अपने अचूक अस्त्रों से अंग्रेजों को ‘नाकों चने चबवा दिए’.इतिहासकार इस तथ्य का वर्णन करने से नहीं चूकते की रानी लक्ष्मी बाई ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे तथा हैदर अली और शिवाजी ने कई बार अंग्रेजों की ‘नाक मे दम’ कर दिया था.और तो और सुविख्यात औरंगजेब का अधिकाँश जीवन शिवाजी की नाक मे नकेल डालने मे बीत गया था.समकालीन विश्व मे भी नाक उतनी ही महत्वपूर्ण है. अमरीका अपनी नाक ऊँची रखने के लिए इरान तथा उत्तर कोरिया को ‘नाक रगड़ने’ पर मजबूर करना चाहता है.भारत-पाक युद्ध मे दो बार ‘नाक रगड़ने’ को मजबूर होने के बाद भी पकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. आतंकवाद के खिलाफ युद्ध घोषित करने तथा तालिबान को नेस्तनाबूद करने के बावजूद अमेरिका अभी तक ओसामा बिन लादेन की ‘नाक मे नकेल’ डालने मे सफल नहीं हो पाया है.

हमारे दैनिक जीवन के कार्यकलापों मे भी नाक का अक्सर जिक्र आता है. जब शारीरिक रूप से सामान्य कोई व्यक्ति अपने से ज्यादा हिष्टपुष्ट व्यक्ति से नाराज होता है तो अक्सर वह बोलता है “मैं तुम्हारी नाक तोड़ दूंगा” (क्यूँकी उसे भलीभांति पता होता है की नाक के अलावा वह और कुछ तोड़ भी नहीं सकता). वे महिलाएं जो छोटी छोटी बात पे आपसे झगडा करने पे उतारू हो जाएँ या बिना बात के ‘नाक भौं सिकोडें’ उन्हें हिंदी भाषा मे ‘नकचढ़ी’ बोलते हैं. गुस्सा उनकी ‘नाक पर चढा’ होता है.इस ‘नकचढेपन’ मे अहंकार मिश्रित रोष होता है. नकचढेपन की इस कला मे हमारी बांगला राजनीतिज्ञ ममता बनर्जी माहिर हैं जिसका प्रदर्शन वे यदाकदा करती हैं. जब कोई अजनबी संभ्रांत व्यक्ति आपको सड़क पर रोक कर रास्ता पूछे, जो आपको मालूम नहीं है (पर आप बताना चाहते है) तो सर्वोत्तम तरीका है – ‘नाक की सीध मे, चले जाइये गंतव्य तक पहुँच जायेंगे. कई सजनों का ये शगल होता है की वो दूसरों को रास्ता बताएं(और भटकने पर मजबूर करें). कई महानुभावों को दूसरों के कार्यकलापों मे ‘अपनी गन्दी नाक घुसाने’ की बड़ी खराब आदत होती है. जब आप अपने किसी खास व्यक्ति से बातचीत करने मे मशगूल हों तो वे अचानक अपनी राय बीच मे पेश कर देते हैं और आपको यह कहने पे विवश कर देते हैं “महोदय कृपया अपनी नाक बीच मे न घुसाएँ”.

भारतीय खासकर हिंदी सिनेमा मे फिल्म निर्देशक नाक के महत्त्व का अपने संवादों मे बखूबी प्रयोग करते हैं. जब विवाह के मंडप मे लड़के वाले दहेज की नयी मांग प्रस्तुत कर देते हैं और विवाह रद्द करने की धमकी देते हैं तो लड़की का बाप अपनी पगड़ी लड़के के बाप के पैरों पर रख यह कहता नज़र आता है “समाधी जी अब मेरी नाक आपके हाथ मे है” या “समधी जी मेरी नाक रख लीजिए”. कोई व्यक्ति जो अत्यंत प्रसिद्द, सम्माननीय एवं प्रिय होता है तो उसे समाज तथा देश की ‘नाक’ जैसे अलंकार से विभूषित किया जाता है. सचिन तेंदुलकर या भगत सिंह को भारतवर्ष की नाक कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी.

आब नाक की चर्चा हो तो ‘नाक के बाल’ की भी चर्चा होनी चाहिए. कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ति हमारे ‘नाक का बाल’ हो जाता है.अक्सर परिवार के सबसे छोटे पुत्र या पुत्री अपने माँ बाप के ‘नाक का बाल’ होते हैं और सहजता से अधिकांश मांगों को पूरी करा लेते हैं. मनुष्यों से इतर जीव जंतु अपनी नाक का प्रयोग अक्सर अपने प्रेम का प्रदर्शन करने मे करते हैं.अकसर हमारे पालतू पशु – कुत्ते या बिल्ली हमे प्यार से ‘नाकियाते’ है. जो कार्य हम अपने हाथों से करते हैं वे अक्सर अपनी नाक से कर लेते हैं. कुत्ता या गाय अगर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं तो वे अपनी ‘ठंडी नाक’ आपसे छुआ देते हैं और अपनी नाक द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. कुत्तों की अत्यंत सवेदनशील नाक तो प्रसिद्ध ही है.

इस प्रकार हम देखते हैं की नाक का हमारे जीवन मे सामाजिक महत्त्व है. अगर हम थोड़ी ज्यादा गहराई मे जा कर सोचें तो पाएंगे की नाक का दार्शनिक एवं आध्यत्मिक महत्त्व भी है. यह नाक ही हमे यानि इस ‘भौतिक शरीर’ को ‘आत्मा’ से जोड़ने का साधन है. इन दो छिद्रों द्वारा ही जीवनदायी श्वास हमारे शरीर मे संचारित होती है.तो हम पाते हैं की अगर नाक न होती तो हम सांस न लेते और मनुष्य मात्र का अस्तित्व ही नहीं होता. इस तरह नाक हमे ब्रह्म से जोड़ती है. पतंजलि ने अपने योगसूत्र मे प्राणायाम द्वारा स्वयं सिद्धि का मार्ग बताया है जिसमे मनुष्य अपनी श्वास पर (नाक द्वारा) स्वयं को केंद्रित कर ध्यान और समाधि की अवस्था प्राप्त करता है. ध्यान और समाधि द्वारा ब्रह्म को पाया जा सकता है. इस प्रकार इश्वर का सम्पूर्ण मायावी संसार “नाक” पर ही केंद्रित है क्यूँकी इसी नाक द्वारा माया रुपी यह भौतिक शरीर श्वांस लेता है और आत्मा इसमें वास करती है. अगर कम शब्दों मे कहें तो यह नाक आत्मा और परमात्मा के बीच की कड़ी है. शायद ब्रह्मा ने मनुष्य के शरीर के संरचना करते समय सर्वप्रथम नाक का ही निर्माण किया था. अतः हम कह सकते हैं की अगर नाक नहीं होती तो शायद मनुष्य भी नहीं होता.

Thursday, May 20, 2010

याद आता है.....


कुछ धुंधली सी यादों मे,
अक्सर तुम्हारा ख़याल आता है.
कहीं कोई छूटा हुआ,
अनज़ाना सा दयार याद आता है.
उन छोटी छोटी बातों का,
उन अकस्मात मुलाक़ातों का,
उन अनकहे जज़्बातों का,
उस इंतज़ार, उस उम्मीद,
उन कुछ नवीन प्रयासों का.
प्रायः  मन की किताब के अधखुले किसी पन्ने पर
'आलिखित' वो विचार याद आता है.
इस संबंध को क्या नाम दूं मैं,
बस तेरा 'इंतज़ार' याद आता है.


ज़रा मुड के तो देखो



ज़रा मुड के तो देखो
खुशियों को कितना पीछे छोड़ आए हो !
पैसे तो कमा रहे हो;
क्या सुकून कमा पाए हो?

बीता हुआ ज़माना





याद आता है वो बीता हुआ ज़माना,
बिना बात के हँसना और बिना बात के रोना!
रूठना और झट से मान जाना.

पर आज ! रोने और हँसने के वजहें ढूंढता हूँ,
और ख़ुद को नही पता किससे और किस बात पे रूठता हूँ.

Sunday, May 16, 2010

क्यूं?


क्यूं एक ठहराव सा आ गया है;
क्यूं ज़िंदगी आज थम सी गयी है;
क्यूं जिज़ीविशा खो गयी है;
क्यूं चेतना विलुप्त हो गयी है;

इस 'क्यूं' का उत्तर क्यूं नही मिलता आज ?

आज रात्रि है 'मधुशाला' ...


निद्रा बन जाती है साकी
लगी पिलाने स्वाप्नों की हाला,
नही रोक पता ये मन भी
इन आँखों का मोहक प्याला.
प्रतीक्षण पाश मे जकड़ रही है
सम्मोहित करती ये मधुबाला,
किसी के वश मे ना अब आएगी
आज रात्रि है 'मधुशाला'.

(बच्चन की कालजयी कृति 'मधुशाला' से प्रेरित)

“सपने में मौत”




कल मैंने एक सपना देखा,
सपने में कोई अपना देखा,
उस अपने का तडपना देखा,
तड़प तड़प के मरना देखा.

ए के ४७ और ग्रेनेड देखे,
उनको चलाने वाले चेहरे देखे,
हर चेहरा था बिलकुल एक सा....
पर नाम थे अलग अलग
अल्लाह, गाड और भगवान.

और मरने वाला था “इंसान”.


इम्तिहान















एक अजीब सा है भय व्याप्त,
एक अनजानी सी है घहबड़ाहाट.
किसी को किसी से नही है मतलब,
दिल मे है सब के एक अकुलाह्ट.
हृदय मे है जो ,वो हो ना जाए विस्मृत,
इस विचार से दिल हो रहा है विचलित.
मष्तिश्क पर पड रहा है ख़ासा ज़ोर,
उसकी क्षमता का हो रहा है पूरा प्रयोग.
शनेः शनेः समय हो रहा है क्षरित,
हृदय गति भी हो रही है त्वरित.
भूत पर हावी है इस समय भविष्य,
आशंका है, हो ना जाए अनिष्ट.
तीन घंटे का यह संग्राम है.

आज इम्तिहान है!

नोट : ये मेरी पहली कविता है